गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर । घरेलु चिकित्सा । कुष्ठ रोग


कुष्ठ  रोग से  त्रिदोष  वात , पित्त  एवं  कफ  की प्रधानता  के आधार  पर  इनको  वर्गीकृत  किया  जाता है।



                                   कुष्ठ रोग  की कारण


वात  दोष की  अधिकता  होने पर  कपाल  कुष्ठ , कफदोष  की  अधिकता  से  मंडल कुष्ठ , पित्तदोष के भड़कने से उदुम्बर  कुष्ठ , तीनो  दोषों  के  प्रभाव से  ककणक  कुष्ठ, वात  पित्तादि  दोष से  ऋक्षजिह्व  कुष्ठ , कफपित्त  दोष से पुण्डरी  कुष्ठ , वात  कफ दोष की अधिकता  होने पर  सिध्म  कुष्ठ होता है।  इन्हे ही सात  महाकुष्ठ  कहते है। 

दोषों की प्रधानता  से ग्यारह  क्षुद्र  कुष्ठ  इस प्रकार है -- वात  कफ  दोष की अधिकता होने पर  चमाक्ष्य  कुष्ठ , एक कुष्ठ , कृतिम  कुष्ठ , विपदिका , अलसक  कुष्ठ  होते है।  पित्त - कफ  दोष  की प्रधानता  से  पामा , शतारु , विस्फोटक , दद्दू ,  चर्मदल  कुष्ठ  होते है।  और  कफ  दोष की अदिकता होने पर  विचर्चिका  नामक कुष्ठ होने का  संदेह  प्रकट  किया जाता  है।  सभी कुष्ठ त्रिदोषज  होते है।  इसीलिए  वातादि  दोष  के  को  भली  भांति  जानकर उन - उन  दोषों  के लक्षण  को समझ  कर  ही चिकित्सा  करनी  चाहिए।  चिकित्सा  क्रम में  यह  स्पष्ट  किया जाता  है  की  बिभिन्न  प्रकार  के  कुष्ठ  में  जिस दोष  के लक्षण  विशेष  रूप  से  उभरे  हुए हो , सर्वप्रथम  उसी  दोष को  शांत  करने  का  प्रयत्न  करना  चाहिए  तथा  इसके  पश्चात  अप्रधान  दोषों को  चिकित्सा करनी  चाहिए।
                                    कुष्ठ रोगों की लक्षण 

वात  दोष के  लक्ष्ण  है --रूखापन , शोष ( अंग  सुख  जाना ) , तोड़  ( सुई  चुभाने  जैसी  पीड़ा ) , शूल , त्वचा में  संकोच  होना , तनाव  का  होना , खुदरापन , रोमांच , त्वचा  का वर्ण  श्याम  अथवा  हल्का  लाल  होना। कुष्ठ  में  पित्तदोष  के लक्ष्यण  है --दाह (जलन ), लालिमा , चारों  और  से स्राव होना , पक  जाना , आमगन्ध  की  उत्पत्ति , क्लेद , अंगपतन।  कफ  दोष  के लक्ष्ण -- कुष्ठ  से आक्रांत  स्थान  में  सफेदी  होना , शीत  होना, खुजली , स्थिरता , व्रण  का उभारयुक्त  होना , भरीपन , चिकनापन , कृमियों  का  उस स्थान  का भक्षण  कर जाना  तथा  गीलापन  का बना  रहना आदि।

                                          कुष्ठ  की  स्थिति

कुष्ठ की तीन  स्थितियां  कही गयी है --असाध्य , सध्य, कृछ  साध्य।

असाध्य --तीनो दोषों  के  सभी  लक्षणों  से युक्त  कुष्ठ रोगी यदि  निर्बल हो , प्यास , जलन से युक्त , जिसकी  पाचकाग्नि  शांत  हो  गयी  हो  और  जिसके  कुष्ठ से  आक्रांत  शारीरिक  अवयवो  को  कुष्ठ  कृमियों  ने  भक्षण  कर लिया  हो, ऐसे कुष्ठ को असाध्य  मान कर  उनकी  चिकित्सा  छोड़ दी जाती है।

साध्य -- जिस कुष्ठ  रोग में  वात  तथा  कफ दोष  की प्रवलता  हो , तो उसकी  चिकित्सा  की जा सकती है।

कृच्छ सध्य--जिन कुष्ठ में  कफ -पित्त  या  वात -पित्त  दोषों  की प्रवलता  देखि जाती है , उन्हें  कृच्छ  सध्य कहा  जाता है।

                                        कुष्ठ का चिकित्सा

कुष्ठ में  दोषों के आधार  पर  चिकित्सा  क्रम निश्चित  किया  जाता है।  वातप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सर्वप्रथम  घृत  पान  कराना चाहिए।  घृतपान  वातनाशक  होता है , इसीलिए  इसका  प्रभाव  पड़ता  है।  कफदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सबसे  पहले  वमन  कराया  जाता है।  वमन  कफ नाशक  होता है।  पित्तदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  रक्तमोक्षण  तथा विरेचन  से पित्तशमन  होता है।

                                  कुष्ठ में  संशोधन  प्रक्रिया

संशोधन  का अर्थ  है  वमन  तथा विरेचन।  कल्पस्थान में  वर्णित वमन  तथा  विरेचन प्रयोग  करने का विधान है।  क्षुद्र  कुष्ठों  में  तथा अल्प दोष वाले कुष्ठों  में  प्रच्छन्न  कर्म  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना चाहिए।  महाकुष्ठों  में  शिरोवेध  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना  चाहिए।  प्रछन्न  कर्म में  जहाँ  से रक्त निकालना  हो , उस स्थान  को काटकर सिंगी या  तुम्बी से  रक्त निकालना  चाहिए।

 वमन , विरेचन  रोगी को  शारीरिक बल को देखकर  ही कराया जाता है।  इससे  दोषों  का निर्हरण  होने के साथ -साथ  शरीर में  कमजोरी  आ जाती  है, क्योंकि  वातादि  दोषों  को स्वस्थ स्थिति   में  देह में धारण  करने के कारण  धातुभी  भी कहा जाता है और  इनको कुछ  मात्रा  में  निकाला भी जाता है  और कुछ मात्रा  में  सुरक्षा  भी  की जाती है।  अतः  एक ही बार  में बहुत वमन , विरेचन न कराकर  थोड़ा - थोड़ा  अनेक बार  में कराना  चाहिए।

                                    कुष्ठ रोग में  स्नेह्पान

संशोधन  कराने  के बाद  कोष्ठ के शुद्ध  हो जाने पर  एवं  रक्तमोक्षण  कर लेने  के बाद  रोगी को  स्नेह्पान  कराना  आवश्यक  होता है , क्योंकी  संशोधन  कर लेने  से दुर्बल  कुष्ठ रोगी  के शुद्ध  में शीघ्र ही वायु  प्रवेश  हो जाता है।  स्निग्ध  द्रव्यों  के सेवन  से वायु  का शमन हो जाता  है एवं  शरीर की रुक्षता  दूर होती है।  अतः  यहाँ  स्नेहपन कराने  का विधान  निश्चित  किया गया है।

                                 कुष्ठ रोग में वामक  द्रव्य

शरीर के ऊपरी  भागो में होने वाले  कुष्ठों  में  जब ह्रदय में  वातादि  दोषों का  उठवलेस   हो जाता है तो कुटज , मदनफल, मुलेठी  तथा  परिरा की पत्ती  के शीतरस   में  नीम  की पत्ती  का रस  मिलाकर  वमन  कराने के लिए पिलाएं।  शीतरस , पक्वरस  सभी  प्रकार  के मधु  और  मुलेठी  आदि  द्रव्य  वमनकारक  होते है।  

स्वतःशरीर । अौषधीय गुण । घरेलु चिकित्सा । नारियल


ना
रियल  मानव  समाज  में  महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाता  है।  स्वागत - सम्मान  एवं  देवपूजन  में  कलस  के ऊपर शोभायमान  रहता है। इसे  मंगलकारी  माना गया  है। नारियल  का  बृक्ष  खजूर  की तरह  काफी  ऊँचे  होते हैं।  इसके  पत्ते  भी खजूर  के पत्ते के सामान  ही दिखाई  देते  है।

                                        अौषधीय  गुण


आयुर्वेद के मतानुसार  पौस्टिक , बस्तिशोधक , वीर्यबर्धक ,शीतल ,बलकारक , स्वादिष्ट  होता है।  वाट-पित्त , दाह -पित्त , तृषा , खून  के दोष  और  क्षय  रोग  के धावों  को नष्ट करता  है।  कफ  कारक , पचने  में  भारी होता है तथा  नारियल  का  पानी  जोर  एवं  मूत्र  सम्बन्धी  विकारों  में  बेहद  लाभदायक  है।  नारियल  का  पानी  अधिक  मात्र  में  पीने  पर   भी  हानि  नहीं  करता।  यह  रक्त  की  भी  शुद्धि  करता  है।  यकृत  सम्बन्धी  रोगों  में  लाभदायक,  कृमिनाशक,  मूत्रल  होता  है।  नारियल  का  तेल- पौष्टिक,  वात -पित्तनाशक  तथा  मूत्र  सम्बन्धी  विकारों  को  नष्ट  करता  है।  स्मरणशक्ति  बढ़ाता  है।  बालों  को  बढ़ानेवाला  तथा  घाव  भरने  वाला  होता  है।  कमर  दर्द, गीली  खुजली  और  सूजन  को  नष्ट  करता  है।  
                            मोटापा  के  रोगी  को  नारियल  का  तेल  सेवन  कराने  से  शरीर  के  अंदर  की  चर्बी  कम   हो  जाती  है।  वसा, प्रोटीन  के  अतिरिक्त  नारियल  की  गिरी  में  कैल्शियम,  मैग्नीशियम,  ताम्बा,  गंधक,  लोहा,  पोटैशियम  तथा  विटामिन- बी  काम्प्लेक्स  भी  होता  है।  कई  तरह  की  नारियल  की  मिठाईयां  भी  बनती  है।  जो  पौष्टिक  एवं  लाभदायक  होती  है।  गर्भवती  महिला  नित्य  नारियल  का  सेवन  करे  तो  संतान  स्वस्थ  एवं  सुन्दर  होती  है।  

                                         घरेलु  चिकित्सा 

शीतला  में-- दूध  पिने  वाले  बच्चों  की  माँ  को  नारियल  की  गिरी  १  सप्ताह  तक  सेवन  कराने   से  बच्चे  को  शीतला  के  प्रकोप  के  दिनों  में  बचाव होता  है।  

गर्भाशय  की  पीड़ा  में -- प्रशव  के  पश्चात  गर्भाशय  में  पीड़ा  होती  हो  तो  नारियल  गिरी  खिलाने  से  लाभ  होता  है। 

हैजा  की  उलटी  में-- हैजा  की  उलटी  में  किसी  औषधि  से  उलटी  बंद  नहीं  होती  हो  तो  नारियल  का  पानी  पिलाने  से  शीघ्र  लाभ  होता  है।  उलटी  होना  बंद  हो  जाता  है।  शरीर  में  खनिज  लवणों  एवं  जल  की  पूर्ति  हो  जाती  है। 

हिचकी  में-- नारियल  फल  की  जटा  की  भस्म  ५  ग्राम  लेकर  १  गिलास  पानी  में  घोलकर  उस  पानी  को  निथारकर  पिलाने  से  हिचकी  बंद  हो  जाती  है।

त्वचा  के  जलन  पर-- नारियल  के  दूध  को  नारियल  तेल  में  मिलाकर  औटाकर  उसे  ठंडा  कर  लें।  जलीहुई  त्वचा  पर  इसे  लगाने  से  घाव  जल्दी  भरता  है।  नई   त्वचा  का  निर्माण  शीघ्रता  से  होता  है।  

फेफड़े  के  क्षय  रोग  में-- ताज़े  नारियल  को  पानी में पीसकर उसका दूध बनाकर नियमित पिलाने से कफ क्षय रोगी  को लाभ मिलता है। 

मलेरिआ  में --नारियल का पानी  २०० मी. ली.  दिन में  ३-४  बार  पिलाना चाहिए। 

मूत्र विकार  एवं  पथरी में --मूत्र  सम्बन्धी  विकार , जलन  , पेशाव  का पीलापन , एवं  मूत्राशय  की पथरी सम्बन्धी रोगों  में  नारियल  का  पानी  प्रतिदिन  २-३  बार  नियमित  पिने  से  लाभ  होता  है।  मूत्र  में  जालान  हो  तो  धनिया  के  बीजों  को  पीसकर  मिलालेने   से  शीघ्र  लाभ  होता  है।  

उच्च  रक्तचाप  में-- उच्च  रक्तचाप  को  नियंत्रित  करने  के  लिए  नारियल   का पानी  नितमित  सेवन  करना  चाहिए। 

गर्भावस्ता  की  उलटी  में-- भोजन  के  बाद  गर्भवती  को  उलटी  होने  की  प्रवृत्ति  कभी  कभी  ५-६  माह  तक  भी  भारी  रहती  है।  ऐसी  स्थिति  में  नारियल  का  पानी  पीकर  सौंफचूर्ण  को  पीसीहुई  मिसरी  के  साथ  १  चम्मच  मात्र  में  मुँह   में  डालकर  चूसना  चाहिए।  

गर्मी  से  बचाव  में-- गर्मी  के  समय    नारियल  का  पानी  पर्याप्त  मात्रा  में  पिने  से  लू  नहीं  लगती  तथा  मानसिक  शांति  मिलती  है।  शरीर  की  अनावश्यक  गर्मी  बाहर  निकालने  में  मदद  मिलती  है। 

खाज- खुजली  में-- नारियल  का  तेल  थोड़ा  सा  कपूर  मिलाकर  त्वचापर  लगाने  से  खाज-खुजली  दूर  होती  है।  नारियल  गिरी  नित्य  सेवन  करने  से  भी  लाभ  होता  है।  

पित्तज  व्याधियों (एसिडिटी ) में-- पित्त  दोषों,  अम्लपित्त,  रक्त  विकार,  प्यास,  उलटी,  दस्त  इत्यादि  में  नित्य  कच्चा  नारियल  मिसरी  के  साथ  सेवन  करने  से  लाभ  मिलता  है। 

संधिवात  में-- संधिवात  के  रोगी  को  नित्य  ५०  ग्राम  नारियल  गिरी  १०  ग्राम  गुड  के  साथ  खूब  चबाकर  सेवन  करना  चाहिए। 

चूहे  के  काटने  पर-- चूहे  के  काटने  पर  विषैले  प्रभाव  को  दूर  करने  के  लिए  बेस्वाद  हुए  नारियल  गिरी  को  मूली  के  रस   में  घिसकर  लेप  करने  से  विषैली  कुप्रभाव  दूर  होता  है। 

प्रमेह  रोगों  में--  जल  प्रमेह,  शुक्रमेह  इत्यादि  प्रमेह  रोगों  में  स्त्री-पुरुष  दोनों  के  लिए  नारियल  पाक  लाभप्रद  होता  है।  नारियल  पाक  २०  प्रकार के  प्रमेह  रोगों  में  लाभकारी  है,  जो  पौष्टिक  एवं  रोग  निवारक  भी  है।  
              आधा  किलो  नारियल  गिरी  को  कस   लें।  ४  कील  गोदुग्ध  में  डालकर  औटाएं।  जब  मावा  बन  जाए  उसमें  ३००  ग्राम  गाय   का  घी  डालकर  धीमी  आग  पर  भून  लें,  उसमें  १५०  ग्राम  बादाम  मींगी  पीसकर  मिला  दें।  सवा   किलो  मिसरी  की  चाशनी  बना  कर  उसमें  नारियल  एवं  बादाम  मिश्रित  मावा  मिलाकर  बरफी  की  तरह  थालों  में  जमा  दें।  ५०  ग्राम  पिस्ता  उपर  से  बुरक  दें।  यह  नारियल  पाक  १०  ग्राम  नियमित  सेवन  करें।  

रक्तार्श  एवं   बादी  बवासीर  में-- नारियल  की  जटा  को  जलाकर  भस्म  बनाकर  छानकर  रखें।  यह  ५  ग्राम भस्म  गाय   के  दूध  से  बने  ताजे  दही  २००  ग्राम  या  जल  में  मिलाकर  ५  दिनों  तक  दिन  में  ३  बार  सेवन  करने  से  लाभ  मिलता  है।  ५  दिनों  तक  केवल  दही की  लस्सी  के  अतिरिक्त  दूसरा  कोई  आहार  न  लें।  अधिकांश  रोगियों  को  इस  नुस्खे  से  दोनों  प्रकार  के  बवासीर  में  लाभ  मिल  जाता  है।  पचने  में  गरिष्ठ  खाद्य  उड़द,  अरबी,  नमकीन,  मैदा,  बेसन,  कढ़ी,  पूड़ी,  पकौड़ी  तथा  आचार,  मिर्च-मसालों  से  परहेज  रखें।  ताजे  मठा   का  सेवन  नित्य  करें। 
                 रेशे  की  पूर्ति  के  लिए  सलाद, फल एवं  हरी  सब्जियों  का  नियमित  सेवन  कीजिये।  कब्ज  न  रहे  इस  बात  का  जीवन  भर  ध्यान  रखिये।  चोकर  सहित  आटे   की  रोटी  का  सेवन  करें। 

बालों  के  रोगों  में-- नारियल  तेल  बालों  में  लगाने  से  बाल  स्वस्थ,  काले,  घने  और  मजबूत  बनते  हैं। 

संग्रहणी  में-- संग्रहणी  के  कष्ट  को  दूर  करने  के  लिए  यह  एक  आसान  नुस्खा  है।  नारियल गिरी,  बेल  गिरी  और  सोंठ  तीनों  ५०-५०  ग्राम  लेकर  महीन  चूर्ण  बनाकर  १५०  ग्राम  गुड  की  चाशनी  बनाकर  उसमें  तीनों  का  चूर्ण  मिलाकर  छोटे-छोटे  लगभग  १०-१०  ग्राम  के  लड्डू  बना  लें।  यह  लड्डू  सुबह  शाम  एक  गिलास  छाछ  के  साथ  नियमित  सेवन  करने  से  भयंकर  संग्रहणी  डॉ  होती  है।  

स्वास  सम्बन्धी  विकारों  में-- नारियल  की  जटा  की  भस्म  आधा  ग्राम  लेकर  शहद  के  साथ  सेवन  कराने  से  शीघ्र  लाभ  मिलता  है। 

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | अौषधीय गुण | पपीता


पपीता का पौधा  प्रायतः  सबकी  घर में  देखने  को  मिलता  है।  पपीता  की उपज  साल में दो बार  होती है।  विटामिन ए , बी , सी , डी  से  युक्त  एक अच्छा  एंटीऑक्सीडेंट  होने के कारण  यह   अनेक  रोगों  से  बचाता  है।  पपीता  त्वचा  तथा बालों के लिए भी  बड़ा उपयोगी  होता है।  पेप्सिन नामक एंजाइम  भोजन के पचाने  के  कार्य  में  प्रभावी  होता है।  अपच , प्लेग , कब्ज , यकृत  अादि  रोगों में  अधिक  लाभकारी  होता  है।  पपीता  के पत्तों  का  रस  कैंसररोधी  होता है।  डेंगू  इत्यादि रोगों में  प्लेटलेट्स  घटने  पर  पपीता के पत्तों का रस  देने से  शीघ्र  प्लेटलेट्स  चमत्कारी  ढंग से  बढ़ने  लगते हैं। 


                                         अौषधीय  गुण         

विषनिवारक , दरद  विनाशक  गुण  है।  कब्ज , उलटी , दस्त , अरुचि ,पित्ती , गाँठ ,प्लेग , हैजा , कफयुक्त  खांसी , कृमि रोग , दाद , बवासीर , सूजन , वात  एवं कफ  सम्बंधित  रोगों में  लाभप्रद  होता  है।  कच्चे  पपीता  का रस  आंत्र  कृमियां  को  नष्ट  करता  है।  गर्भवती  स्त्री  को  पपीता  का सेवन  करना  हानिकारक  माना  गया  है। 


                                          घरेलु  चिकित्सा 

कब्ज में --पपीता  एक उत्तम  कब्ज  निवारक  फल है।  प्रातः  २५० ग्राम  पका  पपीता  तथा भोजन  के बाद  १५० ग्राम  पपीता  का  नित्य  सेवन  करना  चाहिए।

भूख की  कमी  एवं  अपच में पके  हुए  पपीता  को  छीलकर  काट लें  तथा  नीबू  का रस   निचोड़कर  चुटकीभर  सेंधा -नमक  एवं  भुने हुए जीरे  को पीसकर  थोडा सा  जीरा  पाउडर  डालकर  पपीते का सेवन  करेंगे  तो  पाचन ठीक  तरह  से  होगा  तथा  जठराग्नि  भी तेज  होगी।  भूख खुलकर  लगेगी , पाचनशक्ति  भी बढ़ेगी।

ऑव में --पपीते  कब्ज  को दूर कर ऑव  को नष्ट करता  है।  ऑव  के मरीज  को सदैव ही  टेल हुए  खाद्य  पदार्थ  तथा  मिर्च -मसाले  से परहेज  रखना  चाहिए  तथा  नियमित  पपीते  का सेवन  करना चाहिए।  भोजन  के तुरंत  बाद  छाछ  पीना  चाहिए।  छाछ  में भुना  हुआ  जीरा  एवं  सेंधा  नमक  या  काला  नमक  भी  स्वाद  के अनुसार  मिला  लें।

दन्त  ब्याधियों  में --दांत एवं मसूड़ों  की  तख़लीफ़ों  से बचने  के लिए  पपीता  का  सेवन  करना  चाहिए।  इससे  दांतों का  दर्द  एवं  मसूड़ों से खून  आना  तथा  सूजन  इत्यादि  से  छुटकारा  मिलता है।

नेत्रों के लिए ---नित्य  पपीता  का  सेवन  करने से  नेत्र -तयोति  अच्छी  बानी  रहती है।

प्लेग होने पर --प्लेग का  आक्रमण  होने पर  पपीता का  सेवन  करने से  २४ घंटे  के अंदर  सन्धिओं का  दर्द  दूर  होता  है  तथा  इसमें  प्लेग  की गांठ को  नरम  कर  देने  की  अद्भुत क्षमता  है।
 
पपीता  के १२५  मीली  ग्राम  बीज को  पानी में  पीसकर  हर  दो -दो  घंटे  में  पिलाने  से  वमन  विरेचन  द्धारा   शरीर  का सारा  विष  नष्ट  हो  जाता है। रोगी को लाभ होता है।

हैजा  में --पपीता  के बीज  २५०  मिली ग्राम  मात्रा  में  गुलाबजल  के  साथ  घिसकर  पिलाने से  लाभ  होता है।  दिन में ३  बार दें।

अतिसार  में --अधि  रत्ति  मात्रा  में  पपीता  के  बीज पानी के साथ घिसकर  पिलाने से अतिसार  में  लाभ  होता  है।

विषैली  जंतुओं के  दंश  पर ---विषनाशक  प्रभाव  होने पर  पपीता के  बीज  को  घिसकर  दंशस्तल  पर  लेप करने  से  लाभ  होता  है।


गाँठ  पर --शरीर पर किसी भी प्रकार की गाँठ  पर  पपीता  के बीजों को घिसकर  नित्य  लेप  करने  से लाभ  मिलता है।  कच्चे  पपीता  का रस   २० ग्राम  नित्य  सेवन  भी करते  रहने  से  गाँठ  समाप्त  हो जाती है।

उदर  शूल  में ---आँतों  में  दर्द होने पर  आधी  रत्ती  पपीता  के बीज  घिसकर  पानी  के  साथ  पिलाने  से  दर्द  दूर  हो जाता  है।

सुन्नता  एवं  चर्म  विकारों  में --खुजली या  शरीर  के किसी अंग  में  सुन्नता  होने पर  तिल के तेल  में  पपीता के बीज  पीसकर , पकाकर  छन लें  तथा  यह सिद्ध  तेल  रखें।  इस तेल से  प्रभावित  अंगों की मालिस  करने से लाभ होता है।  कच्चे  पपीता  का दूध लगाने से  दाद  आदि  चार्म रोग  मिटते  है।

अस्थि  क्षय  पर ---अस्थिओं के क्षरण  होने पर  सन्धिओं के दर्द , अस्थि विकृति आदि व्याधिओं  का जन्म लेती है। पपीता का नियमित सेवन अस्थिओं  को मजभूत  बनाता  है।  इसका नित्य सेवन करने से  विकृति दूर होती है।

सर्दी , जुखाम में --जिन्हे  बार बार  सर्दी - जुखाम , एलर्जी  जैसे रोग सताती है , उन्हें नित्यप्रति  पपीते का सेवन कराना चाहिए।  इससे इम्युनिटी  बढ़ती  है , रोग नष्ट  होते हैं।

अम्ल  पित्त  में --पपीता का फल सेवन करने से  अम्ल -पित्त  दूर होता है।  जठराग्नि  प्रदीप्त  करता है।  खट्टी  डकार  आनि  बंद  होती है। यकृत एवं तिल्ली  की  बृद्धि  भी  मिटती  है।

पेट के कृमि रोग में ---पपीता  के बीजों को एक रत्ती  की मात्रा  में ले कर पीस लें , एक कप  गरम  पानी में  घोल कर  खली पेट ८-१०  दिनों तक  सेवन करने से  आंत्र  कृमि  नष्ट हो जाते हैं।  कच्चे  पपीते  का रस  भी  ५० ग्राम  नित्य खली पेट सेवन करने से  कृमि  नष्ट हो जाते  हैं।

यकृत की कमजोरी में --पपीता को लिवर टॉनिक  कहा गया है।  पीलिया  इत्यादि  यकृत (लिवर ) के  विकारों में  पके हुए  पपीता का  नियमित  सेवन  करना  चाहिए।  पपीता  यकृत  विकारों को  नष्ट  कर  याकुत  की  कार्य  - प्रणाली को  ठीक  करता है।

बौनापन  में --बच्चों की  लम्बाई  बढ़ने  के लिए पपीता  का नियमित  सेवन  करना चाहिए।  इससे  पोषक  तत्व  की  पूर्ति  होती है।

ह्रदय रोग में --पेड़ में  लगे कच्चे पपीते को  चाकू से चीरे  लगाने पर  पपीते का दूध  निकलता  है।  कच्चे  पपीते का दूध  १०-१२ बून्द  बतासे पर  टपकाकर  प्रातः  सेवन करने से ह्रदय के लिए लाभप्रद  होता है।  कच्चे पपीते की खीर  बनाकर  सेवन करना चाहिए। पपीते  के ५० ग्राम  हरे पत्तों को  पानी में  उबाल कर  बनाए काढ़े में  सौंफ , इलायची , काली मिर्च  तथा काले नमक को  पीस कर बनाया  पाउडर  ३ ग्राम  मिलकर  रात को  सोते  समय  सेवन करना चाहिए। उपरोक्त  उपचार ह्रदय  रोगों में लाभप्रद  है।

कष्टार्त्तव  में --जिन महिलाओं को अनियमित या  कष्टप्रद  मासिक  धर्म  होता है उन्हें  कच्चे पपीते  का रस   १०० ग्राम  नियमित  सेवन  करना चाहिए।

कैंसर में --कच्चे पपीते को  सलाद  के रूप में  सेवन करना  तथा कच्चे पपीते  को  कसकर  दही के साथ  रायता  सेवन करना चाहिए।

मूत्रविकारो में --पेशाब में  जलन  , दर्द , संक्रमण , बहुमूत्र  इत्यादि  में  पके पपीता का  सेवन लाभकारी  होता है।

चेहरे के सौंदर्य  के लिए --कच्चे पपीते को  काटकर उसका  रस  चेहरेकी  त्वचा पर  रगड़ने  से चेहरे के दाग ,  कालिमा  , धब्बे , किल-मुहांसो पर रस  लगाने से लाभ होता है।  पके पपीते को मसलकर  पेस्ट  बनाकर  चेहरे पर  आधा घंटे  तक  लगाकर  रखें  तत्पश्चात  स्वच्छ  पानी से चेहरा  धो  लें तथा  सूती  कपडे  से  पोछ  कर चेहरे पर  नारियल  या  तिल का तेल लगाएं। यह प्रयोग  नियमित  करने पर लाभ होता है।

डेंगू ज्वर  में ---डेंगू ज्वर में  रक्त  के प्लेटलेट्स  घाट जाते हैं।  २० ग्राम  गिलोय  के रस  के साथ  पपीते के ताजे पत्तों  का  २० ग्राम रस  निकालकर  दिन में  दो बार ३-४  दिनों  तक देने से प्लेटलेट्स  तेजीसे  बढ़ने लगते हैं। गेहूं के  जवारे का रस  , गिलोय  का रस  तथा  गुड़हल  के पत्तों का रस  एवं  एलोवेरा  का रस  भी  प्लेटलेट्स  बढाने  के लिए  उपयोगी  एवं  सहायक  होता है।

पित्त की पथरी  में --यह पित्ताशय  की पथरी के लिए प्रभावी प्रयोग है।  पपीते के  ताज़ी  जडी  खोद कर  लाएँ  तथा  गमले में  गड दें  ताकि  नित्य  प्रयोग के लिए  ताज़ी बानी रहे।  अव   प्रतिदिन  ५ ग्राम पपीता  की जड़  धोकर  साफ़  कर ले , तत्पश्चात  पानी के साथ  पीसकर  छान  लें  तथा  एक कप पानी  के साथ  निराहार  प्रातः सेवन कराएं।  यह प्रयोग  २१ दिन तक करें फिर  जांच  करा लें।  

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधीय गुण | घरेलु चिकित्सा | जामुन


जामुन दो प्रकार  होते हैं।  एक बड़ी जामुन , दूसरी  छोटी।  जामुन को  रायजामुन , थोरजामुन , जॉम्बी , कालाजाम आदि  नामों  से  विभिन्न  प्रांतों  में  जाना  जाता  है।  अंग्रेजी  में  इसे  जाम्बूल  कहा जाता है।  जामुन के  बीजों में  जम्बोलिन  नामक  ग्लूकोसाइड  पाया  जाता  है,  जो  स्टार्च  को  शर्करा  में  बदलने  से  रोकता  है ,  इसीलिए  यह  डायबिटीज  के  रोगी  के  लिए  हितकारी  है।  जामुन  के  पत्ते, फल  एवं  छाल  औषधीय  प्रयोजन  में  उपयोग  में  लए  जाते  हैं।  जामुन  के  पत्ते  आम  के  पत्ते  के  सामान  होते  हैं,  परन्तु  चिकने  और  चमकदार  होते  हैं।


                                          गुण  धर्म

यकृत,  प्लीहा,  की  वृद्धि  मिटाता  है।  भूख  बढ़ाता,  कफ  एवं  पित्त  का  शमन  करता  है।   त्वचा-विकारों  का  निवारण  करता  है।  दाहनाशक, पाचक  एवं  शीतल  प्रभाव  वाला  तृषानाशक  है।  मलावरोधक  होने  से  दस्त  में लाभप्रद  तथा  श्वास, खाँसी, पेट  रोग  तथा  कृमिनाशक  है।  रक्तशर्करा  एवं  मूत्रशर्करा  को  कम  करता  है।  खाली  पेट  सेवन  करने  से  वायुविकार  बढ़ाता  है।  अतः  दोपहर  के  भोजन  के  बाद  सेवन  करना  चाहिए।

                                        घरेलु  चिकित्सा 

पथरी  में -- जामुन  के  पके  फल  उपलब्ध  हों  तब  नित्य  सेवन  करें  तथा  अन्य  मौसमों  में  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ५ ग्राम,  १५० ग्राम  दही  में  मिलाकर  दो  बार  सेवन  करें।

शीघ्र  पतन  में --  जामुन  की  गुठली  का  ५ ग्राम  चूर्ण  नित्य  प्रातः  एवं  शाम  को  पानी  के  साथ  सेवन  करें।  इससे  मूत्रसंस्थान  के  सभी  रोगों  में  भी  लाभ  होता  है।

रक्तातिसार  में -- खुनी  दस्त  में  १० ग्राम  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ठंडे   पानी  के  साथ  सेवन  करें।

उदार  विकार  में -- जामुन  मल   बाँधने  का  काम  करता  है।  पतले  दस्त,  भूख  की  कमी  इत्यादि  उदर  विकारों  में  सेंधा  नमक  मिलाकर  जामुन  के  रस  का  सेवन  करना  चाहिए।

यकृत  एवं  तिल्ली  बढ़ने  पर -- जामुन  के  फलों  का  सेवन  या  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  या  पत्तों  का  क्वाथ  बनाकर  सेवन  करना  चाहिए।


नींद  में  पेशाब  करना -- छोटे  बच्चे  जो  बिस्तर  में  पेशाब  कर  देते  हैं,  उनके  लिए  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ३-४ ग्राम  लेकर  पानी  के  साथ  नित्य  सेवन  कराना  चाहिए।  कुछ  ही  दिनों  में  यह  रोग  मिट  जाता  है।

पीलिआ  में -- जामुन  लिवर  टॉनिक  है।  इसमें  हीमोग्लोबिन  बढ़ाने  वाला  लौह  तत्व  है।  यकृत  को  स्वस्थ  बनाकर  पीलिआ  रोग  को  दूर  करता  है।

उलटी  में -- जामुन  की  छाल  निकालकर,  जलाकर  भस्म  बनाकर  छानकर  रख  लें।  उलटी  बंद  करने  के  लिए  शहद  में  १ ग्राम  भस्म  मिलाकर  चटा  दें।  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  शहद  के  साथ  सेवन  कराने  से  भी  उलटी  बंद  होती  है।

पेट  में  बाल  या  लोहा  जाने  पर -- पेट  में  भूल  से  बाल  या  लोहे  की  पिन,  कील  इत्यादि  जाने  पर  नियमित  जामुन  का  सेवन  करते  रहने  से  नष्ट  हो  जाते  हैं।


मुँहासा  होने  पर ---मुँहासा  का  प्रमुख  कारण   चिकनाईयुक्त  गरिष्ठ  खाद्यों  का अधिक    सेवन  एवं  कब्ज   होना   है। उन  कारणों  को  दूर  करने के  उपायों के  साथ  जामुन की  गुठली  को पानी  के साथ  घिसकर  मुहांसों   पर  लेप   करने  से  भी  लाभ होता है।

खुनी बवासीर  में ---जामुन के  कोमल  पत्तों  का  २० मि .ली  रस  निकालकर  उसमें  चीनी  या  मिस्री  मिलाकर  सुबह -शाम  नियमित  सेवन  कराने  से लाभ  होता  है।

मसूड़ों की  सूजन में ---जामुन की छाल  निकालकर  काढ़ा  बना लें  तथा नित्य  तीन बार जामुन  के  काढ़े  का कुल्ला  करने से सूजन  ठीक होता  है।

दन्त रोगों में --दन्त रोगों  के  निवारण  एवं  बचाव  के लिए  जामुन  के पत्ते  छाया में  सुखा लें  तत्पश्चात  पीसकर  चूर्ण बनाकर  कपड़छन  करके  अल्प  मात्रा  में  कपूर , सेंधा  नमक , फिटकरी  तथा  शुद्ध  हल्दिचूर्ण  मिलाकर  सुबह  एबं  शाम को  मंजन  करने से  सभी प्रकार  के  दन्त - विकारों  का शमन  होता है।  जामुन  की  टहनी  की  दातुन  नित्य  करने से  भी  दन्त रोग  मिटते है।

फोड़ा  होने  पर --जामुन के पत्तों  को  पीसकर  फोड़ा पर  लेप  करने  से  फोड़ा  जल्दी  पककर  फुट  जाता है  और  फोड़ा  ठीक  हो जाता  है।

कान बहने पर --कान के  रोगों  में  जामुन की  गुठली का  चूर्ण   तिल  या  सरसों  के  तेल में  पकाकर  छन कर  रखें।  जब  कान  के  रोग  सताएं  तब २ बून्द  तेल  कान में  टपकाकर  कान में रुई  लगा  लें।

योनि  सम्बन्धी  रोगों में --१०० ग्राम  जामुन के  कोमल  पत्तों को  पीसकर  ४००  मी.ली  पानी  में  उबालकर  काढ़ा  बनालें।  इस क्वाथ  में  ५ ग्राम  फिटकरी  घोलकर  ठंडा  कर लें।  इस काढ़े से  योनि  मार्ग का  प्रक्ष्यालन  करने  से योनि सम्बन्धी  अनेक  रोगों का  निवारण  होता है।

प्रमेह एवं धातु दोष में --पके हुए  जामुन के फलों का  कल्प  भी  इन रोगों में  लाभकारी  होता है।  जामुन  फल  दिन  में ४ बार सेवन  करें।  प्रतिदिन  थोड़ी - थोड़ी  मात्रा  बढ़ाते  जाएं  २० दिन  बाद  थोड़ी -थोड़ी  मात्रा  घटाते  जाएं।  पाचनशक्ति  के अनुसार  मात्रा  विवेकपूर्वक  निर्धारित  कर लें।

मदुमेह में  --मदुमेह  के रोगी को  चिकित्सक के प्रत्यक्ष  परामर्श  से ही  उपचार क्रम  सुनिश्चित  करना  चाहिए।  मधुमेह  में  पथ्य  एवं  परहेज  पर अधिक  ध्यान  देना  अनिर्वार्य  होता है।  गेहूं  की रोटी  खाना हो तो  चोकर  सहित  ४० ग्राम  आते की रोटी खाएं।  हरी  सब्जी  एवं  सलाड  आदि  की मात्रा  भोजन में बढ़ा  देना चाहिए।  चना , जौ , सोयाबीन  तथा  तोडा तिल मिलाकर बनाए  गए  आटे  की रोटो, अंकुरित  मूंग का सेवन , मूंग की दाल , अंकुरित  मेथी  दाना , तोरई , लौकी , भिन्डी ,मूली ,टमाटर ,फूल गोभी , पत्ता  गोभी , गाजर , परवल  ,करेला ,पालक ,सेम ,खीरा ,दही ,मठा  का  सेवन करें। गेहूं , चावल ,आलू ,शकरकंद ,अरबी , गन्ने का  रस  , गुड  डालकर  तथा मिठाईओं  का त्याग  करें।  दिन में  नहीं  सोना  चाहिए।  मल  - मूत्र  के वेग  को  नहीं  रोकना  चाहिए।  एक ही  स्थान पर देर तक  बैठे  नहीं रहना  चाहिए।  शारीरिक  शक्ति के  अनुसार  सुबह-शाम  १-२ घंटे  टहलना , परिश्रम  करना  लाभप्रद  होता  है।  उपरोक्त  नियमों का  पालन  करते  हुए  निम्नानुसार  अौषधि  बनाकर सेवन करें।

     जामुन की गुठली  का चूर्ण तथा  सोंठ  सामान  मात्रा में  ले कर  दोगुना  मात्रा  में  गुड़मार  चूर्ण  लेकर  घृतकुमारी  के रस  में खरल  करके  बेर की  गुठली के  बराबर  गोलियां  बनाकर दिन में तीन बार  पानी के  साथ नित्य  सेवन  करने से दो माह में लाभ मिल जाता है।  उचित  पथ्य - परहेज  का पालन  करने पर ही  लाभ होता है।

जामुन का  बहु उपयोगी  शरबत --जामुन के पके हुए  मीठे फल  को एक लीटर  रस  ले कर  उसमे  ढाई किलो  शक्कर  मिलाकर  पकाना चाहिए।  दस मि. ली.  शरबत  जल के  साथ सेवन करने से  पित्तज  अतिसार , रक्तस्रावी  दस्त , खुनी दस्त  व  उलटी , सुजाक , प्रमेह , रक्तप्रदर , रक्तस्राबी  बवासीर , उलटी  आदि में  लाभप्रद  होता है। 

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | अौषधीय गुण | घरेलु चिकित्सा | गाजर


             गाजर  को  सभी  खाते  हैं,  परन्तु  इसके आयुर्वेदिक  उपयोग  को  अधिकांश  लोग  नहीं  जानते।  गाजर  अम्लता  को  नष्ट  करता है , यकृत  रोगों  को  दूर करता  है।  गाजर  में  विद्यमान  विटामिन  कैंसर  से बचाता  है।

      गाजर  का  रस  एंटीसेप्टिक  होता है ,  यह शरीर में  किसी भी  प्रकार  की  सडन  क्रिया  को  रोकता है।   गाजर  के रस  में  इन्सुलिन  तथा  अन्य  लाभदायक  हार्मोन  बना  देने  का  गुण  भी  होता है।  इसमें  म्युसिन  नामक  तत्व  आतंरिक  त्वचा  के लिए  मलहम  का काम  करता है।

      गाजर में  पर्याप्त  मात्रा में  बीटाकेरोटीन , विटामिन -ए , बी , सी , डी , ई   तथा  अनेक   खनिज  लवण  लोहा , मैग्नीशियम ,  पोटैशियम ,  सोडियम ,  फॉस्फोरस  आदि    एवं  अन्य  सरकरा  विद्यमान  हैं।   गाजर  रक्त  की  कमी  को  दूर  करता  है।

      आयुर्वेदिक  की  अनुसार  गुण  और  धर्म 

                  रुचिकर,  हृदय  के  लिए  हितकारक,  पाचनशक्तिवर्धक, मूत्र  बढ़ने  वाला  त्रिदोषशामक  होता  है।   बवाशीर ,  दमा ,  हिचकी,  शुक्र  दौर्वल्यनाशक ,  स्नायुसंस्थान  के  लिए  बलकारक ,  रक्त  शुद्धिकारक ,  कफ -वात  निकालनेवाला  होता  है।   रक्तविकारनाशक ,  दुग्धवर्धक ,  पथ्रिनाशक ,  उदररोग निवारक  होता  है।   खांसी  एवं  सूजन  दूर  करता  है।  मूत्र  की  रुकावट  एवं  जलन  को  नष्ट  करता  है।   रक्त  को  क्षारधर्मी  बनाकर  त्वचा  को  स्वस्थ   सुन्दर  बनाने  का  गाजर  में  महत्वपूर्ण  गन  है।   जीवनी  शक्ति  बढ़ाता  है।  संधिवात , गठिया  का  निवारण  होता  है।   इसमें  विद्यमान  विटामिन-डी  हड्डियों  और  दांतों  के  लिए  उत्तम  है।


    गाजर को दोपहर  के भोजन के पूर्व  सलाड के रूप में तथा रसाहार (जूस )  के रूप में  दोपहर के भोजन के ३ घंटे  बाद  अर्थात  ३-४  बजे  का  समय  उचित है।  गाजर के  दर्पनाश  के लिए  जीरा , राई  और गुड  का  प्रयोग  करते हैं।

                                    घरेलु प्रयोग 
   अनिद्रा में  --एक  गिलास  गाजर का  रस  नियमित  सेवन  कराने  तथा  गाजर की  सलाद  का  पर्याप्त  मात्रा  में  नियमित  सेवन  करने से  मानसिक  अवसाद ( डिप्रेसन ) अनिद्रा  एवं  कमजोरी  दूर होती है।  मस्तिष्क   को  पोषण   मिलता है।  स्नायु  मजबूत  होते हैं।  शरीर में  उपस्थित  विजातीय  द्रव्य  पसीना  एवं मॉल- मूत्र  आदि  उत्सर्जन  मार्गों  के माध्यम  से बहार  निकल  जाते हैं।

कब्ज में  --- गाजर  स्नायुओं  के लिए बलकारक  होने एवं  रेसा की मात्रा  भरपूर  होने के  कारण  आंतों  को स्वस्थ  बनाता  है  एवं मॉल की  रूकावट  दूर  कर  कब्ज  निवारण  में  भरपूर  भूमिका  निभाता है।  बवासीर  रोग से  बचाव  होता  है।

जोड़ों  के दर्द  में ---रक्त  में यूरिक  एसिड  आदि  बढ़ने  से जोड़ों  में विद्यमान  साइनोवियल  फ्लूइड ( चिकनाई ) समाप्त  हो जाती है।  जोड़ों  के  संचालन  में  बाधा  आती है ,  कार्टिलेज  एवं  अस्थिओं  का  क्षरण  होने  लगता है।  गाजर  का  कैल्शियम  एबं  विटामिन डी  हड्डीओं  एवं  जोड़ों को स्वस्थ बनाने का  काम करता है।  यूरिक एसिड को  बहार निकाल  कर  जोड़ों में  लचीलापन  बढ़ाता  है , जिससे  जोड़ों के  दर्द से मुक्ति  मिलती है।  जब  गाजर उपलब्ध  हो , तब  नित्य  प्रति  सलाद  या  जूस  के रूप में  उपयोग करना चाहिए।  गाजर  क्षारीयता  बढ़ाता  है , जिससे  अनेक रोगों से  बचाव  होता है।

माताओं को  दूध  की  कमी  में  -- गाजर  का  जूस  माँ   और  बच्चे  दोनों  के  स्वस्थ्य  के  लिए  वरदान  होता  है।   दूध  पिलानेवाली  माताओं  को  दूध  की  कमी  होने  पर  नत्यप्रति  २५०  ग्राम  गाजर  का  जूस  देने  से  दूध  की  मात्रा  बढ़ती  है  या  गाजर  का  हलवा  खाने  के  बाद  एक  गिलास  गाय   का  दूध  पिलाना  चाहिए।

बच्चों  के  दन्त  निकलने  में  कठिनाई  --- बच्चों  के  दांत  निकलते  समय  नित्य  गाजर  का  रस  सेवन  कराने से  आसानी  से  दांत  निकलते  हैं।  दूध  ठीक  तरह  से  पचने  लगता  है।

पीलिया  तथा  आँतों के  अल्सर  में  ---गाजर  को  अच्छी  तरह  धोकर  गाजर  का  रस  दिन  में  २-३ बार  एक  गिलास  पिलाना  लाभप्रद  होता  है।  गाजर  यकृत ( लिवर ) तथा  छोटी  आंत  और  बड़ी  अंत  का  क्रिया  को  ठीक  करता है।

पेट में  कृमि  होने पर --पेट में कृमिओं के  कारण पेट  दर्द , वायु फुल्लता  एवं  ऑव  तथा  बड़ी  आंत में  सूजन  जैसे  कष्ट  उभरते  हैं।  गाजर का  रस   खाली पेट  नित्य  सेवन  करने से  कृमि  नष्ट  हो जाते  हैं।

आधा  शिर  दर्द में  ---नित्य होनेवाले  आधे  शिर  में  तेज  असहनीय  दर्द में गाजर के पत्तों पर  घी  चुपड़ कर  आग में  थोड़ा  सेख लें  फिर  पत्तों का  रस  निकालकर  दो दो  बून्द  रस  नाक के  छिद्रों में टपकाएं ,इससे छींके  आएँगी  तथा दर्द दूर होगा।

पथरी में --मूत्राशय  की पथरी  में  गाजर  का  रस सलगम  के  रस  के साथ  मिलाकर  दो  माह  तक  नियमित पीनेसे   पथरी गलकर  निकलती  है।  पथरी बहत  बड़ी  हो तो  आपरेसन  द्वारा  निकलवाना  उचित  रहता है।

कष्टप्रद  मासिक धर्म (कष्टार्तव ) में --महिलाओं  के  कष्टर्त्तवा  रोग  में  गाजर  के  बीज  १०  ग्राम  तथा  गुड  २५  ग्राम  लेकर  दोनों  को  १  गिलास  पानी  में  उबालें  और  काढ़ा  बनाकर  मासिक  धर्म  के  १०  दिन  पहले  से  नित्य  सुबह  शाम  सेवन  कराएं,  इससे  मासिक  की  रूकावट  दूर  होगी।   गर्भाशय  के  दोषोों  की  निबृति  होगी।

एक्जिमा  इत्यादि चर्म  रोगों  में --कद्दूकस  से   गाजर  कास  लें  तथा  उसमें  थोडासा  नमक  मिलकर  एक्जिमा  वाले  स्तान   पर  पुल्टिस  लगाकर  रखें ।  नियमित  प्रयोग  जारी  रखें  तथा  इन  दिनों  भोजन  में सफ़ेद  नमक  को  बंद  रखें।  पूर्णतः  बिना  नमक  का  भोजन  लाभ  होने  तक  करें।  उपचार  के  दिनों  में   गाजर  एवं  दूध  का  ही  सेवन  करें ,  तो  लाभ  जल्दी  मिलता  है।  चर्मरोगों   में  सफ़ेद  नमक  का  सेवन  हानिकारक  होता  है।  प्राकृतिक  आहार  फल  या  सलाड  या  सूप-जूस  इत्यादि  रक्त  को  शुद्ध  करने  में  अधिक  महत्वपूर्ण  है।  समयसाध्य  रोग  होने  से  इसका  उपचार  लम्बी  समय  तक  चलाने  पर  लाभ  होता  है।

क्षय  रोगों में  --गाजर  को  कसकर  उसे  बकरी  के  दूध  के  साथ  धीमी  आंच  पर  गर्म  करें ,  थोड़ी  देर  पकाने  के  बाद  दूध  को  छान  कर  ठंडा  कर  दिन  में  दो  तीन  बार  सेवन  करें।  गर्म  की  सुरक्षा   हेतु  उपरोक्त  प्रयोग  से  महिलाओं  के  गर्भस्राव  रोग  में  पहले  माह  से  ही  सेवन  कराने  से  लाभ  होता  है।

खुनी  दस्त  में --खुनी  दस्त  में  गाजर  का  रस   १००  ग्राम  लेकर  उसमें  उतनी  ही  मात्रा  में  बकरी  का  दूध  मिलाकर  सेवन  कराने  से  लाभ  होता  है।

पिंडलियों  में  ऐंठन --इस  रोग  में  गाजर  को  भूनकर  चीनी  के  साथ  सेवन  कराने  से  पिंडलियों  की  ऐंठन दूर  होती  है।


गाजर  की  खीर --२५०  ग्राम  गाजर  को  अच्छी  तरह  धोकर  कसकर  आधा  किलो  दूध  में  डालकर  स्वाद  के  लिए  इलायची  आदि  मिलाकर  धीमी  आग  पर  पकने  दें।   पकने  के  पश्चात  उसमें  मिसरी   मिलाकर  उतार  लें।   पाचनशक्ति  अच्छी  हो  तो  अन्य  सूखे  मेवे  तथा  ग्रुत  मिलकर  सेवन  कराएँ।  यह  उत्तम  पौष्टिक   खीर  है  जो  शारीरिक  एवं  मानसिक  स्वास्थय  के  लिए  उपयोगी  है।

हृदय  की  दुर्बलता  में  --हृदय  रोग  में  गाजर  लाभप्रद  है।   गाजर  के  मौसम  में  नित्य  दोपहर  के  भोजन  के  ३  घंटे  बाद  एक  गिलास  गाजर  का  रस   लेने  से  हृदय  को  बल  मिलता  है।  रक्त  की  शुद्धि  होती  है।

स्वास्थ्यरक्षक  पेय --एक  पाव  गाजर  के  रस  में  ५००० (आई.यू )  विटामिन-ए  होता  है।  लगभग  १२५  ग्राम  गाजर  कसकर  एक  गिलास  दूध  में  पकाकर ,  छानकर  चाय  की  तरह  नियमित  पियें।  यह  शारीरिक  एवं  मानसिक  दुर्बलता  को  दूर  करता  है।  मिठास  के  लिए  खजूर , मुनक्का   या  गुड  का  प्रयोग  करें।  इसे  गाजर  की  चाय  कहते  हैं।

निम्न  रक्तचाप  में --नियमित  गाजर  का  रस   २००  ग्राम  सेवन  करने  से  लाभ  होता  है।

मधुमेह  में --अन्य  शर्करा  की  अपेक्षा  गाजर  की  शर्करा  मधुमेह  के  रोगी  आसानी  से  पचा  सकते  हैं।  गाजर  में  प्राकृतिक  रूप  से  इन्सुलिन  होता  है। नियमित  १५०  ग्राम  गाजर  के  रस   में  ५०  ग्राम  पालक  के  रस   के  साथ  सेवन  करना  चाहिए।   

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधिय गुण | घरेलु चिकित्सा | अखरोट


        अखरोट  पतझड़  करने वाले  बहुत सुन्दर  और  सुगन्धित  बृक्ष  है , इसकी दो  जातियां  पाई  जाती है।  जंगली अखरोट   की पौधे १००  से  २००  फीट  तक  ऊँचे,  अपने  आप  उगने  वाले  तथा  फल  का  छिलका  मोटा  होता है।  कृषिजन्य  ४०  से  ९०  फीट  तक  ऊँचा  होता  है  और  इसके  फलों का  छिलका  पतला  होता  है।  इसे  कागजी  अखरोट  कहते  हैं।  इसके  बन्दूकों  के  कुन्दे  बनाये  जाते  हैं।

बाह्यस्वरूप :
               अखरोट की नई शाखाओं का पृष्ठ मखमली , कांड्त्वक धूसर तथा उसमें अनुलम्ब दिशा में दरारें होती हैं। पत्तियां पक्षवत सघन ,मूल रोमश , पत्रक संख्या में ५ से १३ , ३ से ८ इंच लम्बे ,२ से ४  इंच  चौड़े  अंडाकार ,  आयताकार  और  सरल  धार वाले  पुष्प  एकलिंगी  हरिताभ , फल  गोलाकार  हरित वर्णी  के जगह  दो पीले बिन्दुओं  से युक्त  फल  त्वचा  चर्मित  एबं  सुगन्धित  गुठली  १  से डेढ़ इंच लम्बी द्विकोस्थिय रुपरेखा में मस्तिष्क जैसी पृष्ठ ताल पर दो खण्डों में विभक्त तथा गिरी में काफी तेल पाया जाता है। वसंत में पुष्प तथा शरद ऋतु में फल आते हैं।

रासायनिक  पदार्थों की  अवस्थिति :

  अखरोट में ४० से  ४५  प्रतिशत  तक  एक स्थिर  तेल  पाया  जाता है।  इसके  अतिरिक्त  इसमें  जुग्लैडिक  एसिड  तथा  रेजिन  आदि  भी  पाए  जाते  हैं।  इसके  फलों में  एक्जोलिक  एसिड  पाया जाता है।


गुण  और धर्म 

     यह वात  नाशक , कफ  पित्त  वर्धक , दीपन , स्नेहन , अनुलोमन , कफ निःसारक , बल्य , बृषय  एबं  बृंहण  होता  है।  इसका  लेप  वर्ण्य , कुष्ठन , शोथहर  एबं  वेदना  स्थापन  होता है।  गिरी  और  इससे  प्राप्त  तेल  को छोड़कर  अखरोट  के  सब  अंग  संग्राही  होते हैं।


अखरोट की अौषधीय  गुण :
 
मस्तिष्क  दुर्वलता :
     
   अखरोट की  गिरी  को  २५ से ५० ग्राम तक की  मात्रा में नित्य खाने से मस्तिष्क  शीघ्र  ही  सबल हो जाता है।
अर्दित में 

  अर्दित में अखरोट  के तेल की मालिस  कर  वात  हर  औशधिओं  के  क्वाथ से  बफारा  देनेसे  लभ होता है।


अपस्मार 

अखरोट गिरी को  निर्गुण्डी के रस में पीस अंजन  और  नस्य  देने से लाभ होता है।

नेत्र ज्योति 

  दो अखरोट और  तीन  हरड़  की गुठली को  जलाकर  उनकी भष्म  के साथ  ४  नग  काली मिर्च को पीस कर अंजन  करने से  नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।


कंठमाला 

इसके पत्तों का क्वाथ ४० से ६०  ग्राम पीने से व  उसी  क्वाथ  से  गांठों  को  धोने  से  कंठमाला मिटती  है।


दाँत 

इसकी  छाल  को  मुँह  में  रखकर  चबाने  से दांत  स्वच्छ  होते  हैं।  अखरोट   छिलकों  की  भस्म  से  मंजन  करने से  दांत  मजबूत  होते  है।


स्तन्यजनन 

स्तन  में  दूध  की  वृद्धि  के  लिए  गेहूँ  की  सूजी  १  ग्राम  अखरोट  के  पत्ते  १०  ग्राम  पीसकर  दोनों  को  मिलाकर  गाय   के घी  में  पूरी  बनाकर  सात  दिन  तक  खाने  से  स्तन्य  (स्त्री  दुग्ध  )  की  वृद्धि  होती  है।


कास 

अखरोट गिरी  को  भूनकर  चबाने  से  लाभ  होता  है।  छिलके  सहित  अखरोट  की  भस्म  कर  एक ग्राम  भस्म  को  ५  ग्राम  मधु  के  साथ  चटाने  से  लाभ  होता  है।


हैजा   

हैजे  में  जब  शरीर  में  बाइटे  चलने  लगते  है  या  सर्दी  में  शरीर  ऐंठता  हो  तो  अखरोट  के  तेल  की  मालिश  करनी  चाहिए।


विरेचन  


अखरोट  के  तेल  को  २०  से  ४०  ग्राम  की  मात्र  में  २५०  ग्राम  दूध  के  साथ प्रातः  काल  देने  से  कोष्ठ  मुलायम  होकर  साधारणतः  अच्छा दस्त  हो  जाता है।


आंत्र कृमि 

अखरोट  की  छाल का  क्वाथ  ६०  से  ८०  ग्राम  पिलाने  से  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।  इसके  पत्तों  का  क्वाथ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्र  में  पिलाने  से  भी  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।


अर्श 

वात जन्य  अर्श  में  इसके  तेल  का  पिचु   को  गुदा  में  लगाने  से  सूजन  काम  होकर  पीड़ा  मिट  जाती  है।  इसके  छिलके  की  भस्म  २  से  ३  ग्राम  को  किसी  विष्टम्भी  औषधि  के  साथ  सुबह  दोपहर  शाम  खिलाने  से  रक्त  अर्शजन्य  रुधिर  बंद  हो  जाता  है।


आर्तव  जनन 

मासिक  धर्म  की  रुकावट  में  फल  के  छिलके  का  कव्ठ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्रा  में  लेकर  २  चम्मच  शहद       ३ -४  बार  पिलाने  से  लाभ  होता  है।  फल  के  १०  से  २०  ग्राम  छिलकों  को  १  किलो  पानी  में  पकाकर  अष्टमांश  शेष  काढ़ा  सुबह  शाम  पिलाने  से  भी  दस्त  साफ  हो  जाता  है।


प्रमेह 

अखरोट  गिरी  ५०  ग्राम ,  छुआरे  ४०  ग्राम  और  विनौले  की  मींगी  १०  ग्राम  एक  साथ  कूटकर  थोड़े  से  घी  में  भूनकर  बराबर  की  मिश्री  मिलकर  रख्खें ,  इसमें  से  २५  ग्राम  नित्य  प्रातः  सेवन  करने  से  प्रमेह  में  लाभ  होता  है।   इसके  साथ  दूध  न पियें।


वीर्यस्राव 

फलों  के  छिलके  की  भस्म  बना लें  और  इसमें  बराबर  की  मात्रा  में  खांड  मिलकर  १०  ग्राम  तक  की  मात्रा  में  जल  के  साथ  १०  दिन  प्रातः  सायं  तक  सेवन  करने  से  धातुस्राव  या वीर्यस्राव  बंद  होता है।


वात  रोग 

अखरोट  की  १०  से  २०  ग्राम  ताज़ी  गिरी  को  पीसकर  वेदना  स्थान  पर  लेप  करें ,  ईंट  को  गर्म  कर  उस  पर  जल  छिड़क  कर  कपड़ा  लपट  कर  उस  स्थान  पर  सेंक  देने  से  शीघ्र  पीड़ा  मिट  जाती  है।   गठिए  पर  इसकी  गिरी  को  नियमपूर्वक  सेवन  करने  से  रक्त  शुद्धहि  होकर  लाभ  होता  है।


शोथ

अखरोट का  १०  से  ४०  ग्राम  तेल ,  २५०  ग्राम  गौमूत्र  में  मिलकर  पिलाने  से  सर्वांग  शोथ  में  लाभ  होता  है।   वाट  जन्य  शोथ  में  इसकी  १०  से  २०  ग्राम  गिरी  को  कांजी  में  पीसकर  लेप  करने  से  लाभ  होता  है।

वृद्ध पुरुषों  के  बलवर्धनार्थ 

१०  ग्राम  गिरी  को  १०  ग्राम  मुनक्का  के  साथ  नित्य  प्रातः  खिलाना  चाहिए।


दाद 

प्रातः  काल  बिना  मंजन  कुल्ला  किये  अखरोट  की  ५  से  १०  ग्राम  गिरी  को  मुंह  में  चबाकर  लेप  करने  से  कुछ  ही  दिनों  में  दाद  मिट  जाती  है।


नासूर 

इसकी  १०  ग्राम  गिरी  को  महीन  पीसकर  मूम  या  मीठे  तेल  के  साथ  गलाकर  लेप  करें।


व्रण 

इसकी  छल  के  क्वाथ  से  व्रणों  को  धोने  से  लाभ  होता  है।


नारू 

अखरोट  की  खेल  को  जल  के  साथ  महीन  पीसकर  आग  पर  गर्म  कर  नहरुबा  की  सूजन  पर  लेप  करने  से  तथा  उस  पर  पट्टी  बांध  कर  खूब  सेंक  देने  से  नारू  १० -१५  दिन  में  गाल  के  बाह  निकलत अ है।   अखरोट  की  छल  को  पानी  में  पीसकर  गर्म  कर  नारू के  घाव  पर  लगाएं।


अहिफेन  विष 

अखरोट  की  गिरी  २०  से  ३०  ग्राम  तक  खाने  से  अफीम  का  विष  और  भीलवे  के  उपद्रव  शांत  हो  जाते  हैं। 

सोमवार, 30 नवंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधि गुण | घरेलु चिकित्सा | तुलसी


तुलसी एक निरापद  एंटीबायोटिक  औषधि  है।  इसे  सर्व रोगहरी  कहा  जाता  है।  यह  औषधि  शारीरिक  एबं  मानसिक  रोगों का  शमन  करती  है।  आयुर्वेद  की  दॄष्टि  से  भी इसे  अनेक  रोगों में  प्रभावकारी  पाया  गया  है।  तुलसी का पौधा  भी  पीपल  की तरह  सतत  ऑक्सीजन  प्रदान कर मानव मात्र  के लिए  परम कल्याणकारी  है।  विकिरण  के  दुष्प्रभाव  को दूर  करने  का गुण  तुलसी में  है।  तुलसी  दो  प्रकार  है --एक  रामा  तुलसी , जिसके  पत्ते हरे  होते  हैं  तथा  दूसरी  श्यामा , जिसके  पत्ते  काले  होते  हैं।  आयुर्वेद  ने  दोनों  के गुण  सामान   बताएं  है। 

तुलसी  को  वैष्णवी , बृंदा , तुलसा  विष्णुपत्नी , सुगंधा , पावनि  आदि  नामों  से जाना  जाता  है।  आयुर्वेद  मतानुसार  तुलसी कृमिनाशक , वातनाशक , कफ विकारों  को दूर  करनेवाली , उलटिनाशक , मूत्रावरोध  दूर करने वाली , पित्तकारक , ह्रदय के  हितकारक , ज्वरनाशक , चर्मरोगनाशक , हिस्टीरिया और  बेहोशी  दूर  करनेवाली  है। 

 सावन  के  महीने  में  तुलसी के पौधे  को  घर - घर  रोपित  स्थापित किया  जाता  है।  इसे  अभियान  के रूप  में  भी  चलाया  जा सकता  है। इसके  पौधे का  बितरण  करना पुण्यदायक  माना  गया  है।  अनेक रोगों को  दूर करने  का गुण  एबं  सरलता  से  उपलब्ध  होने  के कारण  तुलसी का  महत्व  कई  गुना  बढ़  जाता  है।


सभी  प्रकार  के वात  रोग  एबं  कफ  से सम्बंधित  बिमारिओं  में  इसका प्रभाव  बहुत  ही  कारगर  पाया  गया है। तुलसी में कैंसररोधी  प्रभाव भी है।  स्थानीय  लेप के रूप में  घाव ,फोड़े , संधियों  की सूजन , पीड़ा , मोच  अआदीमें  इसका उपयोग  प्रभावी  होता है।  मानसिक अवसाद  एबं  लो  ब्लूडप्रेसर की स्थिति  में  इसे  त्वचा पर  मलने से  तुरंत  स्नायु  संस्थान  सक्रिय  होता है।  शरीर के बाहरी  कृमिओं को  नस्ट  करने में भी इसका लेप  करते  हैं।  उदरशूल  तथा  अंतोकी  कृमिओं को  नस्ट करने  में भी उपयोगी  है।

तुलसी  सभी  प्रकार के  ज्वारों  का चक्र  तुरंत  तोड़ देती है।  क्षय रोग  नस्ट करने में भी प्रभावी  है।  जीवनी शक्ति  बढाती है तथा  हानिकारक  जीवाणुओं  को  पलने  नहीं  देती है।  जहाँ  तुलसी के पौधे होते हैं वहां की  वायु  बिषाणु  रहित  तथा  सुगन्धित  होती है।

बिभिन्न  रोगोंमें  तुलसी के प्रयोग 
खांसी में ---अड़से  के पत्तों  का रस  एबं  तुलसी के पत्तों  के रस को शेहद  के साथ  मिलकर  सेवन करने से  खांसी  में  बड़ा  लाभ  होता  है।

चार  पांच लोप  भूनकर  तुलसी के पत्ते  के साथ  सेवन  करने से  सब तरह  की खांसी में लाभ होता है।

अदरक के रास के साथ  तुलसी के पत्ते का  रस  शहद  के साथ  चटाने  से भी  लाभ  मिलता है।  काली तुलसी के पत्तों का रस काली  मिर्च  के साथ  सेवन करने से खांसी का  बेग  संत होता  है।

दांतों के दर्द में ---तुलसी के पत्ते  काली मिर्च के साथ  पीस  कर छोटी  छोटी सी गोली बनाकर  दर्द वाले  दांतों के विच  दवा कर  रखने  से  दन्त  दर्द  बंद  होता है।

पीनस  रोग  में ---तुलसी के  पत्तों  का रस  निकालकर  हल्का  गरम  करके  २-३  बून्द  कान  में  टपकाएं।  इससे  कांन के  दर्द  बंद  हो  जाता  है।
            तुलसी  के  पत्तों का  रस  दो  भाग  तथा  सरसों  का  तेल  एक  भाग  मंद  आग  पर  गरम  कर  सिद्ध  तेल बना  लें।  यह  तेल  जब  भी  कान में  दर्द  हो , १-२  बून्द डालने  से  कान  की पीड़ा दूर होता है।

दाद में ---चर्मरोग में तुलसी की बड़ी प्रभावी ओषधि   माना  गया  है।  तुलसी के  पत्तों को  पीसकर  उसमें  नींबू   का  रस  मिलाकर  कुछ  दिन तक  दाद पर  लगाने  से  दाद  समाप्त  हो जाता  है।

अन्य  चर्मरोगों  में ---तुलसी के पत्तों को  गंगा जल  में  पीसकर  नित्य  लगाने से  सफ़ेद  दाग  मिट  जाते  हैं।  तुलसी के पत्तों  का रस  दो  भाग  तथा  तिल का  तेल  एक  भाग  लेकर  मंद  आँच  में  पकाएं।  ठीक  पाक जाने  पर  छान  लें।  यह  तेल  खुजली  इत्यादि  चर्मरोगों  में भी  लाभकारी  है।  चेहरे के सौंदर्य  के लिए  तुलसी के पत्तों  को  पीसकर उबटन  लगाएं।

मलेरिया  में --एक गिलास  पानी में  २१  तुलसी के पत्ते  एबं  दो काली मिर्च  पीसकर  डालें  तथा इस पानी को  उबालें जब  आधा  पानी  शेष  रहे  तब  उतारकर  ठंडा  करें।  चाय  की तरह  यह  काढ़ा  रोगी को पिला दे , इस से  पसीना आकर  ज्वर  दूर होगा।

 सर्प  विष  में ---तुलसी विष नाशक  है।   सर्प दंश  की स्थिति  में तुलसी के पत्तों  का रस  अधिक से अधिक  मात्रा  में मिलाएं  तथा तुलसी की  जड़ को  घिसकर  शरीर में दंश स्थल  पर लेप करें।  सर्प दंश से पीड़ित  रोगी  यदि  बेहोशी  में हो  तो  उसके  कान एबं  नाक में  तुलसी के पत्तों का रस  डालना  चाहिए। इससे  बेहोशी दूर  होगी एबं  सर्प विष  का प्रभाव  दूर होगा। केले के  तने का  रस  भी  तुलसी के पत्तों  के रस के  साथ  देने से बड़ा  प्रभावकारी  होता  है। 

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

स्वस्थशरीर | स्वस्थबृत्त का विज्ञानं | पंचकर्म


स्वस्थबृत्त की जब हम चर्चा करते हैं तो दो नामों की विशेष चर्चा होती है --- पंचकर्म एवं षट्कर्म। आचार्य  

चरक  कायचिकित्सा  को षट्कर्म  सिद्धि के रूप में  मानते  हैं।  उनके  अनुसार  ये  षट्कर्म  है ---१  लंघन ; 

२ बृंहण ; ३  रक्षण ; ४  स्नेहन ; ५  स्वेदन  एबं ६  स्तंभन।   एक  है  शोधन , दूसरा  है  शमन।  शोधन  यदि 

 ठीक  से  हो तो  दोषों का  प्रकोप  नहीं होता।  पंचकर्म चिकित्सा   प्रधानतः  शशोधन  चिकित्सा  है।  दूसरी और

  घेरंड संहिता भी हठयोग के अंतर्गत शरीर शोधन हेतु षट्कर्मों की बात कहती है। ये हैं धोती, नेति, नौलि, त्राटक

 तथा कपाल भाति। छहों क्रियाएँ शरीर शोधन के लिए हैं। योगिराज घेरंड कहते हैं --''षट्कर्मों द्वारा शरीर का

 शोधन कर आसनों से शरीर को दृढ़ करना चाहिए, मुद्राओं से उन्हें स्थिर कर प्राणायाम से स्पूर्ति एवं  लघुता 

प्राप्त करें। प्रत्याहार से धीरता बढ़ती है, ध्यान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार एवं निर्विकल्प समाधि द्वारा 

निर्लिप्त साधक मुक्त हो जाता है। ''

              योग के षट्कर्म से आयुर्वेद के षट्कर्म अलग हैं। फिर जब हम पंचकर्मों की चर्चा करते हैं तो शरीर

 विज्ञान --कायचिकित्सा के मर्म के अनुरूप चरक, शारंगधर, भावप्रकाश , उल्हन  आदि ने जो  पंचकर्म  का 

बिभाजन  किया  है , वह  इस प्रकार  है --पूर्व कर्म, पश्चात कर्म, प्रधान कर्म। पूर्व कर्म में हैं -- दीपन, पाचन, 

स्नेहन एवं स्वेदन।  पश्चात कर्म  में विशेष  आहार --व्यबस्ता  है  तथा प्रधान  कर्म है ---वामन, विरेचन , 

वस्ति , शिरोविरेचन , रक्त  मोक्षण।   वस्ति में  अनुवासन  एबं आस्थापन  आते हैं। 

    पंचकर्मों  की  महत्ता  चरक सूत्र  में बताई  गई है।  चरक कहते हैं  की इनसे  कायाग्नि  तीक्ष्ण  हो जाती  है , 

 व्यधिओं  का  प्रशमन  हो जाता है , स्वस्थ्य  वापस  ठीक  होने लगता  है , इन्द्रियां  प्रसन्न  होती है , शरीर का

 वर्ण  पुनः  लोट  आता है , बुढ़ापा विलम्ब  से आता है , रोग रहित  दीर्घायु  प्राप्त होती है। 

    पांच कर्म  काया चिकित्सा का मूल आधार है।  आयुर्वेदिक  चिकित्सा  के ये  आधारभूत  कर्म हैं।  संशोधन

  करना अति  अनिवार्य  है।  बिना  उसके  सारे  चिकित्सकीय  कर्म  अधूरे  मने जाते  है। पांच कर्म संशोधन

  तथा पूरक कर्म  जुड़  जाने  से एक पूर्ण  चिकित्सा  भी है।  चरक स्थान --स्थान  पर पांच कर्मा की स्वस्थ

  वृत्त ,  रसायन , बाजीकरण , शल्य --शालाक्य , भुत  विकारों  की चिकित्सा  तथा  विष -- विकारों  की

  चिकित्सा के  परिपेक्ष्य  में महत्ता  बताते है।  शुश्रुत  भी उनका  समर्थन  करते है।  


        उपयुक्त्  ऋतु  में संशोधन  कर्म  का उपयोग  स्वस्थवृत्त  का अंग  मन गया है।  चरक  कहते हैं  की हेमंत

 रूरतु  में  संचित  दोष   को  बसंत में ; ग्रीष्म ऋतु  में  संचित  दोष  को  वर्षाकाल  में  और  वर्षाऋतु में  संचित

 दोष को  शरद  ऋतु  में उपयुक्त संशोधन  कर्मों  द्वारा  मुक्त  कर  दिए  जाने पर  मनुष्य  में  ऋतु प्रभाव  से

  उत्पन्न  होने वाले  रोग  नहीं होते।  आज  इन्ही रोगों  का  बाहुल्य  है।  ऋतु चर्चा की  किसी  को भी जानकारी

  नहीं है।  फिर  रोगी  होने के  वाद  चिकित्सकों  की  शरण में जाते हैं।  रोग  आने से पूर्व  यदि योग  एवं 

  आयुर्वेद  का  थोडा सा  भी  ज्ञान  अपने  जीवन में उतार  लें  तो  कोई भी  कभी भी  रोगी न हो। 

        सुश्रुत कहते हैं की रोगोत्पत्ति  के पूर्व ही दोषों का हरण कर लेना बुद्धिमान वैद्यो का कर्त्तव्य है। इसके

 लिए वसंत में कफ का, शरद में पित्त का तथा वर्षा में वात का शमन इसलिए करना चाहिए की ये उन दोषों के 

प्रकोपकाल हैं। अष्टांग हृदय में वागभट्ट कहतें हैं कि ग्रीष्म ऋतु अति उष्ण ,वर्षा ऋतु अत्यधिक वर्षा वाली तथा 

शीत ऋतु अत्यधिक ठंडी होती है। स्वभावतः इनमें दोषों का प्रकोप होता है।  अतः संधि कल में दोषित दोषों का

 शमन करना  अनिवार्य है।  ऋतु -- विपर्यय  की कारन आज ग्रीष्म ऋतु में ओलों की वर्षा से ठण्ड देखि जाती है। 
 ठंडक में  गर्मी ततयः वर्षा की हीनता  देखि जा रहीहै।  ऐसे  में सभी दोषो का प्रकोप चरम सीमा पर होता है। 

 उस पर हमारा आहार भिो बीकृत , ऋतु प्रतिकूल  होता है।  इसीलिए रोगो का  बाहुल्य है।  सभी का उपचार है 

 पंचकर्म -- सशोधन  एबं  सशमन  का उपचार क्रम। 

  सुश्रुत सशोधन कर्म के लिए निम्न  लिखित सिद्धांत  देते हैं  --

१ शिशिर में  कफ का  संचय तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्दिस्ट कर्म है -- दीपन , पाचन। 

२ बसंत में कफ का प्रकोप तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है -- वमन 

३  ग्रीष्म  में वाट का संचय एबं कफ का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है --वात हर  अआहार -- विहार। 

 ४  वर्षा  में पित्त एबं कफ का संचय तथा वाट का प्रकोप होता  है।  निर्द्धिस्ट कर्म है वस्ति। 

५  शरत में पित्त एबं कफ का प्रकोप होता है तथा  वाट का प्रशमन।  निर्द्धिस्ट कर्म है --विरेचन। 

६  हेमंत (ठंडक की शुरुवात ) में कफ का संचय होता है, वात  का प्रकोप  तथा पित्त का प्रशमन , ऐसे में  वस्ति

  कर्म  निर्दिस्ट  है। 

१ -स्नेहन कर्म ----
   पूर्व कर्म का यह एक प्रमुख अंग है। चरक सूत्र का तेरहवाँ अध्याय इसकी विस्तृत व्याख्या करता है। स्नेहन

अनिवार्य है। बिना स्नेहन के संशोधन शरीर में उपद्रव मचा सकता है। स्नेहन हेतु जो द्रव्य प्रयुक्त होते हैं

, वे स्निग्ध , गुरु , मृदु गुण  वाले होते हैं। घी , तैल , वसा एवं मज्जा ये चार प्रमुख स्नेह वर्ग में आते हैं। इनमें से

 घृत सर्वोत्तम है। ऋतु   अनुसार  द्रब्य  अलग --अलग  है।  शरत ऋतु में  घृत , बसंत में  वसा  एबं  सम्मिश्रित

 ऋतु में  तैल  पान  बताया गया है।  अति उष्ण  तथा अति शीतकाल  में स्नेहन  का निषेध  किया गया है।