गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर । घरेलु चिकित्सा । कुष्ठ रोग


कुष्ठ  रोग से  त्रिदोष  वात , पित्त  एवं  कफ  की प्रधानता  के आधार  पर  इनको  वर्गीकृत  किया  जाता है।



                                   कुष्ठ रोग  की कारण


वात  दोष की  अधिकता  होने पर  कपाल  कुष्ठ , कफदोष  की  अधिकता  से  मंडल कुष्ठ , पित्तदोष के भड़कने से उदुम्बर  कुष्ठ , तीनो  दोषों  के  प्रभाव से  ककणक  कुष्ठ, वात  पित्तादि  दोष से  ऋक्षजिह्व  कुष्ठ , कफपित्त  दोष से पुण्डरी  कुष्ठ , वात  कफ दोष की अधिकता  होने पर  सिध्म  कुष्ठ होता है।  इन्हे ही सात  महाकुष्ठ  कहते है। 

दोषों की प्रधानता  से ग्यारह  क्षुद्र  कुष्ठ  इस प्रकार है -- वात  कफ  दोष की अधिकता होने पर  चमाक्ष्य  कुष्ठ , एक कुष्ठ , कृतिम  कुष्ठ , विपदिका , अलसक  कुष्ठ  होते है।  पित्त - कफ  दोष  की प्रधानता  से  पामा , शतारु , विस्फोटक , दद्दू ,  चर्मदल  कुष्ठ  होते है।  और  कफ  दोष की अदिकता होने पर  विचर्चिका  नामक कुष्ठ होने का  संदेह  प्रकट  किया जाता  है।  सभी कुष्ठ त्रिदोषज  होते है।  इसीलिए  वातादि  दोष  के  को  भली  भांति  जानकर उन - उन  दोषों  के लक्षण  को समझ  कर  ही चिकित्सा  करनी  चाहिए।  चिकित्सा  क्रम में  यह  स्पष्ट  किया जाता  है  की  बिभिन्न  प्रकार  के  कुष्ठ  में  जिस दोष  के लक्षण  विशेष  रूप  से  उभरे  हुए हो , सर्वप्रथम  उसी  दोष को  शांत  करने  का  प्रयत्न  करना  चाहिए  तथा  इसके  पश्चात  अप्रधान  दोषों को  चिकित्सा करनी  चाहिए।
                                    कुष्ठ रोगों की लक्षण 

वात  दोष के  लक्ष्ण  है --रूखापन , शोष ( अंग  सुख  जाना ) , तोड़  ( सुई  चुभाने  जैसी  पीड़ा ) , शूल , त्वचा में  संकोच  होना , तनाव  का  होना , खुदरापन , रोमांच , त्वचा  का वर्ण  श्याम  अथवा  हल्का  लाल  होना। कुष्ठ  में  पित्तदोष  के लक्ष्यण  है --दाह (जलन ), लालिमा , चारों  और  से स्राव होना , पक  जाना , आमगन्ध  की  उत्पत्ति , क्लेद , अंगपतन।  कफ  दोष  के लक्ष्ण -- कुष्ठ  से आक्रांत  स्थान  में  सफेदी  होना , शीत  होना, खुजली , स्थिरता , व्रण  का उभारयुक्त  होना , भरीपन , चिकनापन , कृमियों  का  उस स्थान  का भक्षण  कर जाना  तथा  गीलापन  का बना  रहना आदि।

                                          कुष्ठ  की  स्थिति

कुष्ठ की तीन  स्थितियां  कही गयी है --असाध्य , सध्य, कृछ  साध्य।

असाध्य --तीनो दोषों  के  सभी  लक्षणों  से युक्त  कुष्ठ रोगी यदि  निर्बल हो , प्यास , जलन से युक्त , जिसकी  पाचकाग्नि  शांत  हो  गयी  हो  और  जिसके  कुष्ठ से  आक्रांत  शारीरिक  अवयवो  को  कुष्ठ  कृमियों  ने  भक्षण  कर लिया  हो, ऐसे कुष्ठ को असाध्य  मान कर  उनकी  चिकित्सा  छोड़ दी जाती है।

साध्य -- जिस कुष्ठ  रोग में  वात  तथा  कफ दोष  की प्रवलता  हो , तो उसकी  चिकित्सा  की जा सकती है।

कृच्छ सध्य--जिन कुष्ठ में  कफ -पित्त  या  वात -पित्त  दोषों  की प्रवलता  देखि जाती है , उन्हें  कृच्छ  सध्य कहा  जाता है।

                                        कुष्ठ का चिकित्सा

कुष्ठ में  दोषों के आधार  पर  चिकित्सा  क्रम निश्चित  किया  जाता है।  वातप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सर्वप्रथम  घृत  पान  कराना चाहिए।  घृतपान  वातनाशक  होता है , इसीलिए  इसका  प्रभाव  पड़ता  है।  कफदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सबसे  पहले  वमन  कराया  जाता है।  वमन  कफ नाशक  होता है।  पित्तदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  रक्तमोक्षण  तथा विरेचन  से पित्तशमन  होता है।

                                  कुष्ठ में  संशोधन  प्रक्रिया

संशोधन  का अर्थ  है  वमन  तथा विरेचन।  कल्पस्थान में  वर्णित वमन  तथा  विरेचन प्रयोग  करने का विधान है।  क्षुद्र  कुष्ठों  में  तथा अल्प दोष वाले कुष्ठों  में  प्रच्छन्न  कर्म  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना चाहिए।  महाकुष्ठों  में  शिरोवेध  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना  चाहिए।  प्रछन्न  कर्म में  जहाँ  से रक्त निकालना  हो , उस स्थान  को काटकर सिंगी या  तुम्बी से  रक्त निकालना  चाहिए।

 वमन , विरेचन  रोगी को  शारीरिक बल को देखकर  ही कराया जाता है।  इससे  दोषों  का निर्हरण  होने के साथ -साथ  शरीर में  कमजोरी  आ जाती  है, क्योंकि  वातादि  दोषों  को स्वस्थ स्थिति   में  देह में धारण  करने के कारण  धातुभी  भी कहा जाता है और  इनको कुछ  मात्रा  में  निकाला भी जाता है  और कुछ मात्रा  में  सुरक्षा  भी  की जाती है।  अतः  एक ही बार  में बहुत वमन , विरेचन न कराकर  थोड़ा - थोड़ा  अनेक बार  में कराना  चाहिए।

                                    कुष्ठ रोग में  स्नेह्पान

संशोधन  कराने  के बाद  कोष्ठ के शुद्ध  हो जाने पर  एवं  रक्तमोक्षण  कर लेने  के बाद  रोगी को  स्नेह्पान  कराना  आवश्यक  होता है , क्योंकी  संशोधन  कर लेने  से दुर्बल  कुष्ठ रोगी  के शुद्ध  में शीघ्र ही वायु  प्रवेश  हो जाता है।  स्निग्ध  द्रव्यों  के सेवन  से वायु  का शमन हो जाता  है एवं  शरीर की रुक्षता  दूर होती है।  अतः  यहाँ  स्नेहपन कराने  का विधान  निश्चित  किया गया है।

                                 कुष्ठ रोग में वामक  द्रव्य

शरीर के ऊपरी  भागो में होने वाले  कुष्ठों  में  जब ह्रदय में  वातादि  दोषों का  उठवलेस   हो जाता है तो कुटज , मदनफल, मुलेठी  तथा  परिरा की पत्ती  के शीतरस   में  नीम  की पत्ती  का रस  मिलाकर  वमन  कराने के लिए पिलाएं।  शीतरस , पक्वरस  सभी  प्रकार  के मधु  और  मुलेठी  आदि  द्रव्य  वमनकारक  होते है।  

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