शनिवार, 23 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । नियम । स्वाथ्य रक्षा


हमारे  जीवन  में एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए कुछ  नियमों को पालन करना  पड़ता है।  दैनिक  दिनचर्या  को ध्यान देना  बहत जरुरी है। ऐसी  कुछ  नियमों का यहाँ वर्णन कर रहा हूँ। 

१। नित्य  सूर्योदय  से पूर्व  उठने का एक नियम  बना लें।  इसके लिए  रात्रि  में  जल्दी सोना  जरुरी  है। अनावश्यक  रूप से रात्रि में  अधिक  देर तक  जागें नहीं। 

२। प्रतिदिन जितनी  सीमा में संभव हो , व्यायाम  अवश्य  करें।  प्रज्ञायोग  एक सरल  सी  व्यायाम - प्रक्रिया  है , जो नित्य  करने पर  सदैव  निरोग रखती है। टहलने और तैरने  से भी अच्छा  व्यायाम  होती है।  शरीर  को अच्छी तरह  तेल का मालिस  करने  से  चर्म  निरोग  रहने के साथ साथ  पूरा  शरीर  अच्छा  रहता  है।

३।  दैनिक सुबह - शाम  कमसे कम  आधा घंटा  टहलने का  अभ्यास  रखें।  इसमें  शरीर  में  रक्त  प्रबाह  ठीक  तरह  से होता है और शरीर  चुस्ती  बानी रहती है।

४।  धुप ,तजि  हवा , स्वच्छ  पानी ,सादा  सात्विक  भोजन  अच्छी स्वस्थ्य  देते है।

५।  प्रतिदिन  योगासन - प्राणायाम  करने से , रोग  कभी  पास  आने का  साहस  नहीं करता।  दीर्घायु  होने के लिए  योगासन  जरुरी है  परन्तु  शरीर पर अधिक  दबाव  न डालें।

६।  ऋतुचर्या  का पालन करें।  ऋतुओं  के अनुसार  शरीर  प्रभावित  होता है।  शिशिर , बसंत , ग्रीष्म - ये  तीन  ऋतुएँ  आदान काल  में  आती है। इसमें  वायु  में  रुक्षता  होती है  तथा  सूर्य  बलवान  होती है।  वर्षा , शरद  हेमंत  ये तीन  ऋतुएँ  दक्षिणायन  में  आती है।  ऋतु  परिवर्तन  जब भी होता है , तब आहार  विहार में  सम्यक  संतुलन  स्वस्थ्य बनाए  रखने के लिए  अनिवार्य  है।  अनेक  रोग  ऋतु  संधिकाल  में  असाब्धानी  के कारण  होते है।

७।  हरीतकी  का सेवन ऋतु के अनुसार कायाकल्प  योग माना  गया है।  इसमें  निर्धारित  अनुपान  के साथ  हरीतकी  का सेवन  किया जाता  है।  ग्रीष्म में गुड  के साथ , वर्षा में  सेंधानमक के साथ ,शरत ऋतु में  शक्कर के साथ , हेमंत ऋतु में  सोंठ  के साथ , शिशिर  ऋतु में पिप्पली  के साथ , वसंत ऋतु में मधु के साथ लेते है। सामान्यतः  मात्रा  आधा  चम्मच  से  ३/४  चम्मच  होती है।

८।  प्रतिदिन  ४-५  तुलसी पत्ते  का सेवन वर्ष भर करने से ज्वर कभी नहीं सताता और भी कई प्रकार के रोग नहीं होते।

९।  भोजन न करना या अधिक भोजन करना पाचक अग्नि  को प्रभावित करता है।  इस विषय में ध्यान रखें। भोजन सरल , सादा  , सात्विक  नित्य अवश्य करें। कम से कम  १०-२०  प्रतिशत भोजन का भाग  कच्चा  सब्जी हो। अंकुरित  पदार्थ भी साथ लें।  बीच  में  जल  न लें।  जल आधा  घंटे  बाद पिएँ , धीरे धीरे  समय बढ़ाएं। स्वाद के लिए नहीं ,स्वास्थ  के लिए खाएं।

१०।  भोजन के बाद नमक मिले  पानी से कुल्ला  करें।  कोई भी अन्न का भाग मुखनालिका  में न रहे। भोजन के बाद थोड़ी देर  विश्राम  अवश्य  कर लें।

११।  हमेशा  शांत  और प्रसन्नचित्त रहे।  प्रसन्न  मन से रोग  दूर भाग जाते हैं।  किसी के  प्रति  अत्यधिक  राग - द्वेष  न रखें।  ध्यान रखें , चिंता से  अपनी ही  हानि  होती है।

१२।  जहाँ तक  हो सके , भोजन के पश्चात  कुछ देर विश्राम  के अलावा  दिन में  न सोने  की आदत डालें ; थोड़ी असुविधा  होगी, पर थोड़े समय में आदत  पद जाने पर रात्रिचर्या  का अभ्यास  नियमित हो जाएगा।

१३।  अपने घर में  ताज़ी हवा  सतत  आती  रहे , इसका ध्यान रखें। बंद कमरे, एयरकंडीशनर , कूलर  आदि के प्रयोग से हम  रोगों को  आमंत्रित  करते हैं। अगरबती , कपूर  अथवा  चन्दन का  धुआं  हर घर में  कुछ क्षणों  के लिए रोज करें। प्रतिदिन  या  सप्ताह में  एक या दो वार  अग्नि होत्र , यज्ञ  करते रहने से  रोग कभी नहीं आते।
१४। श्वास  सदा  नाक से  और सहज ढंग से  लें।  मुह से  श्वास  न लें।  इससे  आयु काम होती है और रोग होने का  दर  रहता है।

१५।  मन को हमेशा  उत्तम  विचारों में  लीन रखें। श्रेष्ठ - सकारात्मक  चिंतन  बढ़ाने वाले  साहित्य का  स्वाध्याय  प्रतिदिन करें।

१६।  सुबह  उठते ही  ठंडा पानी कम  से कम  ३-४ गिलास  तक धीरे धीरे पिएँ।  यदि पानी  ताम्बे के पात्र में रखा होगा तो  अधिक लाभ करेगा , उससे  दिन भर  स्फूर्ति  बानी रहेगी , पेट साफ  रहेगा  तथा  अनेक रोग  नहीं आएंगे।

१७।  धुप का सेवन  अवश्य करें।  पृथ्वी - तत्त्व  से भी  संपर्क में रहने का प्रयास करें।

१८।  सप्ताह में एक दिन  , एक समय  उपवास  ब्रत  का पालन करें  तथा  निम्बू मिश्रित  जल लें।

१९।  भोजन करते समय  न चिढ़ें , क्रोध न करें। रात्रि का भोजन  सोने से तीन घंटे पहले करें।

२०।  सोने से पहले पैरों को  अच्छी तरह धो लें।  इष्टदेव का स्मरण  करें। मुह ढककर  न सोएं।

२१। सुबह - सुबह  हरी दुब पर टहलना  संभव  हो तो  नंगे पैरों टहलें।  पैरों पर दुब  के दबाब  से  तथा  पृथ्वी - तत्त्व के  संपर्क से कई रोगों की स्वतः  चिकित्सा  हो जाती है।

२२।  सोते समय शिर  उत्तर  या  पश्चिम  दिशा  में रख कर न  सोएं। दिशा का यह ज्ञान  रख कर सोने से बहत सारि  व्याधिओं  से  बचा  जा सकता है।

२३।  प्रौढ़ावस्था  का आरम्भ  ५० वर्ष के बाद  माना जाता है। इसके बाद  क्रमशः  दिन में  एक बार ही अन्न लें। बाकि समय  दूध व  फल  पर रहें। चावल , नमक , घी , तेल  , आलू , तली -भुनी  चीजें क्रमशः  काम करते  जाएं। आहार  सात्विक और जितना  हल्का -सुपाच्य  हो , उतना ही  श्रेष्ठ है।

२४।  सवेरे  उठते ही बिस्तर पर लेटे-लेटे  अपनी  हथेलिओं  को रगड़ें ; उनका  दर्शन  करें और फिर बैठ कर नया  जन्म  होने की भावना करें।

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । आयुर्वेदिक चिकित्सा । हिक्का और श्वास रोग


हिक्का  और श्वास  रोग  पाण्डु  रोग के बाद  जन्म  लेते है ; ऐसा  हमारे  आयुर्वेद  के विद्वानों का  मत है।  पाण्डु रोग  चिकित्सा न होने पर  श्वास रोग  का  रूप ले  लेता  है।  हिक्का  रोग में  बार बार हिचकी  आता  है, इसीलिए इस रोग को हिक्का  कहते है। जिस रोग  से रोजमर्रा की  जीवन चर्या  में  कष्ट  हो एवं  वायु  मुश्किल से अंदर  बाहर  जा आ  पा  रही हो , उसे  श्वास  रोग कहा जाता  है। प्राणवायु  और  उदान  वायु  प्रकुपित होकर  जब  एक साथ  क्रियाशील  होते है , तब  श्वास  द्वारा  लिया  हुआ  वायु  बीच में  रूककर  मुख की और  बढ़ता  है  और सहसा  हिक  शब्द  की  उत्पत्ति  हो जाती है।

          हिक्का  और  श्वास  में  समानता  यह है की ये दोनों  रोग  कफ  और  बातजन्य  होते है।  चिकित्सा  नहीं  किये  जाने पर  ये  रोग  रस  रक्तादि  को  सुखा  देते है।  इनके  उत्पन्न  होने पर  रोगी  यदि  अनुचित  आहार बिहार  करता  है तो  जिस प्रकार  क्रोध में  आया  साँप  मृत्यु  का  कारण  बनता है , उसी प्रकार ये रोग  भी  मृत्यु का  कारण  बन जाते  हैं।
                                          कारण एवं निदान 


धूल  एवं  धुआँ  आदि  के  श्वास  मार्ग  में  प्रविष्ट  हो जाने से , शीत  स्थान  या  शीतल  जल  के  अत्यधिक  सेवन  से , अधिक व्यायाम , अधिक  कामसेवन , अधिक रास्ता  चलने से , रुखा  अन्नसेवन से , विषम  भोजन से, आमदोष  के बढ़ जाने से , शरीर के अत्यधिक  रुक्ष  हो जाने पर , अधिक दुर्वलता  से , वामन-विरेचन  के अतियोग  से, अतिसार , ज्वर , धातुक्षय , रक्तपित्त (एलर्जी ), पाण्डु  रोग  एवं  विष सेवन  से हिक्का  और श्वास  रोग  जन्म  लेते  हैं।  इसके  अलवा  तिल तेल  का  अधिक सेवन , चावल  का आटा , गुरु आहार , कच्चा  दूध  अधिक मात्रा  में , कफकारक  आहार  का  सेवन एवं  कंठ  तथा  छाती  पर आघात  भी  हिक्का  श्वास  के कारण  होता  है।  इन्ही का  एक रूप  कास  है।  कास  वातज , पित्तज , तीनो भेद से होता  है , जबकि  हिक्का -श्वास  मात्र  वात - कफात्मक  होते हैं।

     ऊपर दिए  गए  कारणो  के परिणाम  स्वरूप  वायु  प्रणवाही  स्रोत में  अंदर प्रवेश  कर कुपित हो जाती है।  यह  अंदर  के  कफ को  उभार कर  प्राणवायु  की रूकावट  का  कारण  वनती है। कंठ  क्षेत्र  और छाती  में  भारीपन , पेट में  गड़गड़ाहट  हिक्का  रोग के  पहले  प्रकट  होते हैं।  जबकि  पेट , पसली , ह्रदय  क्षेत्र  में  पीड़ा एवं  प्राणवायु  का मूढ़  हो जाना  श्वास  रोग के  पूर्वचिन्ह  है।  हिक्का  रोग में  कफ  एवं  वायु  कुपित  होकर  प्राण  उदर  सभी क्षेत्रों में रूकावट  पैदा  कर  हिक्का  रोग को जन्म देते हैं।

   हिक्का  रोग में महहिक्का , गम्भीरा , व्यपेता , क्षुद्र  एवं  अन्नजा  ऐसे  पांच  प्रकार  का  वर्णन  आता है।  महहिक्का  एक  ऐसी  स्थिति है , जिसमें  किसी  रोगी का  अन्य  किन्ही कारणों  से  तेज  क्षीण  हो गया हो  और  उनका  कफ  कुपित होकर  कंठ क्षेत्र  को आक्रांत  कर अति  प्रबल  ऊँचे  शब्दों  की उत्पन्न  करनेवाली  हिक्का  निरंतर पैदा  करता  है।  कभी  एक, कभी दो  बार  भी  एवं तीन  बार  वेग  के साथ  यह  निरंतर  निकलती  है।  ह्रदय , जठराग्नि  को  प्रभावित  कर  यह शरीर में  जकड़ाहट  भी  पैदा  कर देती  है  तथा रोगी को  स्मरण शक्ति  को  नष्ट  कर देती है।  यह व्यक्ति  बोल भी नहीं पाता।  यह हिक्का  रोग  महाशूल , महाशब्द , महाबल  वाला  होता है  और प्राण  हरने  वाला  होता है।  अतः  इसे महहिक्का  कहा गया है , ऐसा  चरक का  मत  है।

 गंभीर  हिक्का  वहां  होती है , जहाँ रोगी के शरीर में  कफ  और  वायु  अधिक मात्र में बढ़ गयी हो।  यह पक्वाशय - नाभिस्थान  में  निकलती है , जो  पित्त का  मूल  स्थान  है।  जकड़ाहट और  मर्मांतिक  वेदना  से  पीड़ित  ऐसे  व्यक्ति  की  हिक्का  नाभि क्षेत्र से  निकलती है।  नाभि से  प्रबृत  होने के कारण  इस हिक्का  में  गंभीर  आवाज होती है।  निकलते समय  यह  अत्यधिक  कष्ट  होती है  और  देह को  टेढ़ा  कर  देती है, श्वास  प्रश्वास  के मार्ग को रोक देता है , आँखों  के सामने  अंधकार  छा  जाता  है , रोगी  का ज्ञान और बल. दोनों  मनो नष्ट हो  जाते  हैं।  रोगी को ऐसा  लगता  है , मनो उसके  फेफड़े  फैट गए है।

 व्यपेता  हिक्का  आहार के  परिणाम  स्वरूप  होती है।  यह अशित , खदित,पिट, लिढ  अन्न  के सेवन  से होता है।  जब  यह  अन्न  पांच जाता  है  तो  हिक्का  का  वेग  बढ़  जाता है।  उस  समय  प्रलाप , वमन , अतिसार , प्यास  का अधिकता  जैसे  लक्षण होते है।  व्यक्ति  ज्ञान शुन्य  हो जाता है।  वेग लगातार न होकर रुक रुक कर होता है।

क्षुद्र हिक्का  व्यायाम के द्वारा कुपित  क्षुद्र  वात  के कारण  होती है , जब  उदारक्षेत्र  से कंठक्षेत्र  में  वात  चला  जाता है।  यह अधिक  दुखदाई  नहीं  होती है।  यह भोजन  करते ही  शांत  हो जाती है।  

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । घरेलु चिकित्सा । एसिडिटी


सिडिटी  रोग को  एसिड डिस्पेप्सिआ , एसिड  गैस्ट्राइटिस  और हाइपर क्लोरोहाइड्रिया  के नाम  से  भी जाना  जाता  है। इस  रोग  का  इतिहास  बहत पुराना  है।  लगातार  बासी  व  तामसिक  भोजन  खाने  से शरीर  मे बहत ज्यादा  अम्ल  तथा  पित्त का  निर्माण  होता है।  इसी को  अम्ल पित्त  कहते है।  बदलती  ऋतुओं  से इस रोग का सीधा  सम्बन्ध  है।  शरद  ऋतु  और वर्षा  ऋतु में  यह रोग  ज्यादा  पैर  पसारता  है।  इस रोग में  रोगी के  आमाशय  में  अम्ल  और  पित्त  का  निर्माण  बहुत  ज्यादा  होने लगता  है। तब  गैस्ट्रिकम्यूकोसा  में  उत्तेजना  पैदा  होती  है , जिससे  हाइपर  एसिडिटी  का शरीर  में  निर्माण होता  है। कई  बार  रोग  की  अवस्था  में  उचित  उपचार  न  कराने  की  वजह  से  रोगी  गैस्ट्रिक  और  ड्यूडिनल  अलसर  का  शिकार  बन  जाया  करता  है।  रोग  की  गंभीर  अवस्था  में  रोगी  को  कैंसर  भी  हो  सकता  है।

                                               लक्षण 


  • अम्लपित्त  रोगी  को  थकान  रहने  लगती  है। 
  • रोगी  को  पेट  में  भारीपन  का  एहसास  होता  रहता  है।   
  • रोगी  को  उबकाई  आती  हैं।  उसकी  उबकाई  में  पीला,  नीला,  हरा,  या  लाल  रंग  का  पित्त  निकलता  है। 
  • रोगी  को  भोजन  से  अरुचि  सी  हो  जाया  करती  है। उसे  डकार  आती  रहती  है। 
  • रोगी  के  पेट,  छाती  और  गले  में  जलन  रहने  लगती  है।
  • रोगी  के  मुहँ   का  स्वाद  कसैला  व  कड़वा  रहने  लगता  है। 
  • रोगी  के  मुहँ  में  अम्लपित्त  की  वजह  से  छाले  हो  जाया  करते  हैं। 
  • रोगी  के  दांत  भी  खट्टे  रहने  लगते  हैं। 
  • भूखा  पेट  रहने  पर  रोगी  को  जलन  का  एहसास  होता  है  और  भोजन  कर  लेने  के  पश्चात  जलन  में  कुछ  वक्त  के  लिए  आराम  सा  पड़  जाया  करता  है। 
  •  रोगी  को  सही  नींद  नहीं  आती  है,  जिससे  वह  हर  वक्त  टेंशन  में  रहने  लगता  है।
  • रोगी  की  जीभ  पर  मैला  पदार्थ  जम  जाया  करता  है। 
  • रोगी  को  गैस  की  प्रॉब्लम  रहने  लगती  है।  जिससे  उसे  अफारा,  पेट  दर्द  और  पेट  फूलने  की  समस्या  का  सामना  करना  पड़ता  है।  
  • रोगी  के  हाथ  पैरों,  आँखों  व  तलवों  में  जलन   रहने लगती  है। 
  • रोगी  को  मलमूत्र  त्यागते  वक्त  भी  जलन  की  अनुभूति  होती  है। 
  • इस  रोग  के  रोगी  को  बार-बार  थूकने  की  आदत  बन  जाया  करती  है।
  • रोगी  की  नाक  से  गर्म-गर्म  सांसें  निकलती  हैं  और  उनका  गुदा  मार्ग  से  भी  तीखी  खट्टी  और  दुर्गन्धयुक्त  गैसों  का  विसर्जन  होता  रहता  है।

                                                   कारण  


  • गलत  खानपान  से  भी  यह  रोग  शरीर  में  पनपता  है। 
  • शराब,  धूम्रपान  व  तम्बाकू  के  ज्यादा  सेवन  से  यह  रोग  होता  है। 
  • तले,  भुने  व  ज्यादा  चटपटे  खाद्य  पदार्थों  के  सेवन  से  भी  यह  रोग  शरीर  में  अपनी  पैठ  बनाने  में  सफल  होता  है। 
  • ब्रेड,  जैम,  जैली,  फ़ास्ट  फ़ूड,  कोल्ड  ड्रिंक्स  आदि  के  सेवन  से  भी  यह  रोग  होता  है। 
  • चाय ,कॉफी , बिस्कुट व  ज्यादा  चीनी के  प्रयोग से भी  यह  रोग उत्पन्न  होता है। 
  • चिंता व  मानसिक  तनाव  भी  इस रोग को  शरीर में  पैदा  करते हैं। 
  • खट्टे खाद्य  पदार्थों , सिरका , खट्टी दही ,खट्टी छाछ  के सेवन से भी  शरीर में  अम्ल पित्त  रोग  पैदा  होता है। 
  • ज्यादा  मात्रा  में  बेसन  व  मैदा  से  बने  खाद्य  पदारथों  के सेवन  से  भी अम्ल पित्त  हो जाया  करता है। 
  • कम  मात्रा  में  पानी  पिने से  और ज्यादा  उपवास  ब्रत  रखने से  भी व्यक्ति इस रोग का शिकार होता है। 
  • चॉकलेट , कुल्फी , डिब्बा  बंद  खाद्य पदार्थ , क्रीम , आइसक्रीम , टॉफियाँ  रोज  ज्यादा  मात्रा  में  खाने से भी  अम्ल पित्त  रोग  होता  है। 
  • पालिश  किया चावल  खाने से  भी  यह रोग  हो जाया  करता है। 
  • बिना चोकर  के  बारीक़ पिसे आटे  की  रोटीआं  खाने से भी  यह रोग सामने आते है। 
  • आजकल लोग  एलोपैथिक  दवाओं  और  एंटीबायोटिक  दवाओं  का खूब  सेवन  करते है।  इस तरह  की दवाओं  के ज्यादा  सेवन  से  भोज नलिका  और आमाशय  पर  बिपरीत प्रभाव  पड़ता है , जिससे  व्यक्ति  की  आँतों  में  सूजन  आ  जाती है , घाव  हो जाता  है  और शरीर में  अम्ल  ज्यादा  बनने  लगता  है। 
  • जल्दी बिना चलाये  भोजन करने से भी  शरीर में अम्ल पित्त  रोग पैदा होते है। 
  • महिलाओं  में  गर्भावस्ता  के दौरान  यह रोग दिखाई देता  है। 
  • अजीर्ण , पुरानी  पेचिश , कब्ज , मंदाग्नि , संग्रहणी , आमाशय  में  सूजन , आंतों में  सूजन होने की बजह से  भी  अम्ल पित्त  रोग  सत्ता सकता है। 
  • दांतों के रोग , आंतों के रोग , पायरिया , लिवर की खराबी , तिल्ली  की  खराबी  भी  इस रोग को पैदा करती है। 
  • दूषित  पानी पिने से भी  यह रोग  फैलता है। 
  • ठन्डे गरम  खाद्य  पदार्थों  का  एक-दूसरे  के ऊपर  सेवन  कर  लेने से  भी  अम्लपित्त  रोग हो जाता है।


                                   जड़ी -बूटियों  से रोग  निवारण 
          
  • त्रिफला  या  आमले  के चूर्ण में  थोड़ा सा शहद  मिलाकर  चाटना  चाहिए। 
  • हरड़ के  चूर्ण  में  थोड़ा सा  शहद  मिलाकर  चाटना चाहिए। 
  • अम्लपित्त रोग होनेपर  रोगी के शरीर में  कई तरह की विकार  पैदा हो जाया करते  है।  इन विकारों  से छुटकारा  पाने  के लिए  काली मिर्च , सोंठ  और  नीम की  छाल  को मिलकर  बारीक़  पीसकर  चूर्ण  बना ले।  इस चूर्ण  को  सुबह  शाम  एक  चम्मच  की  मात्रा  में  ताजे  पानी  से  लेने से  फ़ायदा  होता है। 
  • पीपल , सुखा  आंवला , छोटी  हरड़ , धनिया , कुटकी  का  समभाग  मात्रा  में  लेकर  पीस ले। इसमें  इनके  बराबर  की  मात्रा  में  मुनक्का दाख  भी  मिला ले।  रात्रि के  समय  लगभग  १५  ग्राम  के  मात्रा  में  इस  मिश्रण  को  लेकर  एक  मिटटी  के  सकौरे  में  पानी  में  भरकर  उसमें  मिला  दें।  सुबह  इस  मसलन  को  छानकर  पी  लें।  २-३  महीनें  तक  लगातार  यह  क्रिया  करते  रहने  से  अम्लपित्त  रोग  दूर  हो  जाता  है। 
  • अगर  इस  रोग  की  वजह  से  पेट  में  दर्द  की  अनुभूति  होती  हो  तो  पीपल  के  वृक्ष  की  छाल  का  काढ़ा  बनाकर  पीने  से  पेट  दर्द  में  आराम  मिलता  है।  काढ़े  में  गुड  और  सेंधा  नमक  डालना  न  भूलें। 
  • ताज़ा  आंवले  के  गुदे  में  बारीक  पिसी  हुई  मिश्री  मिलाकर  रखनी  चाहिए। 
  • मुनक्का  १०  ग्राम  और  सौंफ  आदि  मात्रा  में  लेकर  दोनों  को  १००  मिली.  पानी  में  भिगो  दें।  सुबह  मसलकर - छानकर  पीने  से  अम्लपित्त  में  लाभ  होता  है। 
  • दाख,  हरड़  बराबर-बराबर  लें। इसमें  दोनों  में  बराबर  शक्कर  मिला  लें।  सबको  पीसकर  १-१  ग्राम  की  गोली  बनाकर  लेने  से  अम्लपित्त,  हृदय  कंठ  की  प्यास,  मंदाग्नि  का  शमन  होता  है। 
  • पकी  निबौली  के  ३-४  दाने  खाने  से  मंदाग्नि  में  फायदा  होता  है। 
  • धनिया,  सौंठ,  शक्कर  और  नीम  की  सींक  ६-६  ग्राम  की  मात्रा  में  लें।  इसका  क्वाथ  बनाकर  सुबह  शाम  पीने  से  पित्त  की  जलन,  खट्टी  डकारें,  अपचन,  ज्यादा  प्यास  मिटती   है। पित्त  स्वर  में  भी  इसका  सेवन  लाभ  पहुँचाता  है।
  • त्रिफला  चूर्ण  आधा  चम्मच  की  मात्रा  में  दिन  में  २-३  बार  पानी  के  साथ  फांकने  से  एसिडिटी   में  लाभ   होता है। 

                                           घरेलु  चिकित्सा 


  • ककड़ी  या  खीरे  को  बिना  नमक  के  साथ   खाने  से   अम्लपित्त  रोगी  ठीक  होता  है।  ककड़ी  या  खीरा   खाने  के  बाद  पानी  नहीं  पीना  चाहिए। 
  • अगर  वायु  विकार  की  समस्या  हो  और  खट्टी   डकारें  आ  रही  हों,  तो  २  आलू  बालू   में  भून  लें।  इसमें  जीरा,  काली  मिर्च,  थोड़ा  सा  सेंधा  नमक   मिला लें।  अब   इसमें  थोड़ा  सा  नींबू  का  रस  मिलाकर   इसका  सेवन  करें। 
  • गाय    के  दूध  में  गुड मिलाकर  पीने   से  खूब  खुलकर  पेशाब  आयेगा,  जिससे  अम्लता   मिटने  के साथ-साथ  गर्मी  व   जलन  भी  मिट  जायेगी। 
  • आधा  चम्मच  नींबू  के  रस  की  बूंदें  मिला  लें।  इसे  दिन  में  ३- ४  बार  चाटने  से  अम्लपित्त  में फायदा  होता  है। 
  • गुड  के  साथ  जीरे  का  चूर्ण  लेना  चाहिए। 
  • धनिया  और  अदरक  को  बराबर  की  मात्रा  में  लेकर  पानी  के  साथ  सेवन  करने  से  रोग  में  फायदा  होता  है।  
  • एसिडिटी  की  समस्या  हो  तो  नारियल  का  पानी  पीना  चाहिए। 
  • काली  मिर्च  की  चटनी  के  साथ  काले  चनों  को  खाना  चाहिए। 
  • प्याज़  के  रस  में  नींबू  का  रस  मिला  लें।  इसके  सेवन  से  पेशाब  की  जलन  मिटती  है। 
  • एक  चम्मच  जामुन  के  रस  में  थोड़ा  सा  गुड  मिलाकर  उसका  सेवन  करना  चााहिए। 
  • आंवले  के  चूर्ण  को  छाछ  या  दही  के  साथ  सेवन  करना  चाहिए। 
              
                                                  आहार

  • बासी  भोजन  नहीं  करना  चाहिए।  
  • सुबह  शाम  टहलने  की  आदत  अवश्य  डालें। 
  • रोगी  को  गेहूँ  व  जौ  के  चोकर  युक्त  मोटे  आटे  की  रोटियां  खानी  चाहिए।  भुना  अनाज  व  अंकुरित  अनाज  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • सब्जियों  में  रोगी  को  तोरई,  टिण्डा,  पालक,  मेथी,  परवल, मूली,  पेठा,  नैनवा,  पत्ता  गोभी,  करेला,  कद्दू,  हरी  सब्जियों  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • फलों  में  रोगी  को  मीठा  बेदाना  अनार,  आंवला,  अमरूद,  पपीता,  केला,  मीठा,  आम,  अंजीर,  सेव,  लीची  व  खिरणीफल  आदि  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • रोगी  को  बेल  का  जूस,  अंगूर  का  जूस,  लौकी  का  जूस,  गाजर  का  जूस  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • रोगी  को  आंवले  का  मुरब्बा  व  बहेड़े  का  मुरब्बा  खाना  चाहिए। 
  • अंकुरित  मूंग, चना,  मक्का  व  गेहूँ  का  सेवन  रोगी  को  करना  चाहिए। 
  • गर्मियों  में  रोगी  को  भुने  हुए  जौ  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • पानी  व  तरल  पदार्थ  बार-बार  पीना  चाहिए।
  • हमेशा  हल्का  व  सुपाच्य  भोजन  करना  चाहिए। 
  • मिश्री  या  खांड  मिलाकर  जौ  व  चने  के  सत्तू  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • भोजन  को  शांत  चित्त  होकर  करें  व  समय-समय  पर  भोजन  को  चबा-चबा  कर  ग्रहण  करने  की  आदत  डालें।   
  • हफ्ते  में  एक  बार  उपवास  अवश्य  रखें। 
  • मौसमी  फलों  का  सेवन  करें।  सलाद  को  अपने  भोजन  में  अवश्य  शामिल  करें। 
  • दूध  को  हमेशा  उबालकर  व  ठंडा  करके  पीने  की  आदत  डालें। 
  • गर्मियों  में  बादाम, पिस्ता,  सौंफ,  काली  मिर्च  की  ठंडाई  फ़ायदा  पहुँचाती  है। 
  • समय-समय  पर  उठना,  समय  पर  सोना  व  समय  पर  भोजन  करना  अम्लपित्त  रोग  को  पनपने  नहीं  देता  है। 
  • कफ  पित्त  नाशक  खाद्य  पदार्थ  व  उबला  हुआ  पानी  इस  रोग  में  फायदा  पहुँचाते  हैं।
                                                   परहेज़ 

  • आलू,  टमाटर,  फूलगोभी,  बैगन  आदि  सब्जियों  का  सेवन  न  करें। 
  • मैदा  और  बेसन  बने  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें। 
  • गरिष्ठ  व  टेल  भुने  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें। 
  • कभी  भी  मन  में  क्रोध,  चिंता,  द्वेष,  ईर्ष्या  आदि  भावों  को  लाकर  भोजन  न  करें।  इस  अवस्था  में  भोजन  का  पाचन  सही  प्रकार  से  नहीं  हो  पाता  है।  जिससे  पेट  में  भोजन  अम्लता  पैदा  करता  है। 
  • चाट,  पकौड़ी  आदि  चटपटे  व्यंजनों  को  न  खाएं। 
  • अनार,  चटनी,  डिब्बा  बंद  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें,  गर्म  भोजन  न  करें,  खट्टी  दही  व  छाछ  का  सेवन  न  करें,  चाय  कॉफ़ी  से  दूर  रहें,  सोयाबीन,  उड़द,  अरहर,  कुलथी,  काबुली  चना,  राजमा,  तेल  आदि  का  सेवन  न  करें। 
  • रात्रि  में  भोजन  देरी  से  न  करें। 
  • कब्ज  से  पीछा  छुड़ाने  के  लिए  कभी  भी  ज्यादा  दस्तावर  चूर्ण  का  प्रयोग  न  करें।