शनिवार, 23 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । नियम । स्वाथ्य रक्षा


हमारे  जीवन  में एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए कुछ  नियमों को पालन करना  पड़ता है।  दैनिक  दिनचर्या  को ध्यान देना  बहत जरुरी है। ऐसी  कुछ  नियमों का यहाँ वर्णन कर रहा हूँ। 

१। नित्य  सूर्योदय  से पूर्व  उठने का एक नियम  बना लें।  इसके लिए  रात्रि  में  जल्दी सोना  जरुरी  है। अनावश्यक  रूप से रात्रि में  अधिक  देर तक  जागें नहीं। 

२। प्रतिदिन जितनी  सीमा में संभव हो , व्यायाम  अवश्य  करें।  प्रज्ञायोग  एक सरल  सी  व्यायाम - प्रक्रिया  है , जो नित्य  करने पर  सदैव  निरोग रखती है। टहलने और तैरने  से भी अच्छा  व्यायाम  होती है।  शरीर  को अच्छी तरह  तेल का मालिस  करने  से  चर्म  निरोग  रहने के साथ साथ  पूरा  शरीर  अच्छा  रहता  है।

३।  दैनिक सुबह - शाम  कमसे कम  आधा घंटा  टहलने का  अभ्यास  रखें।  इसमें  शरीर  में  रक्त  प्रबाह  ठीक  तरह  से होता है और शरीर  चुस्ती  बानी रहती है।

४।  धुप ,तजि  हवा , स्वच्छ  पानी ,सादा  सात्विक  भोजन  अच्छी स्वस्थ्य  देते है।

५।  प्रतिदिन  योगासन - प्राणायाम  करने से , रोग  कभी  पास  आने का  साहस  नहीं करता।  दीर्घायु  होने के लिए  योगासन  जरुरी है  परन्तु  शरीर पर अधिक  दबाव  न डालें।

६।  ऋतुचर्या  का पालन करें।  ऋतुओं  के अनुसार  शरीर  प्रभावित  होता है।  शिशिर , बसंत , ग्रीष्म - ये  तीन  ऋतुएँ  आदान काल  में  आती है। इसमें  वायु  में  रुक्षता  होती है  तथा  सूर्य  बलवान  होती है।  वर्षा , शरद  हेमंत  ये तीन  ऋतुएँ  दक्षिणायन  में  आती है।  ऋतु  परिवर्तन  जब भी होता है , तब आहार  विहार में  सम्यक  संतुलन  स्वस्थ्य बनाए  रखने के लिए  अनिवार्य  है।  अनेक  रोग  ऋतु  संधिकाल  में  असाब्धानी  के कारण  होते है।

७।  हरीतकी  का सेवन ऋतु के अनुसार कायाकल्प  योग माना  गया है।  इसमें  निर्धारित  अनुपान  के साथ  हरीतकी  का सेवन  किया जाता  है।  ग्रीष्म में गुड  के साथ , वर्षा में  सेंधानमक के साथ ,शरत ऋतु में  शक्कर के साथ , हेमंत ऋतु में  सोंठ  के साथ , शिशिर  ऋतु में पिप्पली  के साथ , वसंत ऋतु में मधु के साथ लेते है। सामान्यतः  मात्रा  आधा  चम्मच  से  ३/४  चम्मच  होती है।

८।  प्रतिदिन  ४-५  तुलसी पत्ते  का सेवन वर्ष भर करने से ज्वर कभी नहीं सताता और भी कई प्रकार के रोग नहीं होते।

९।  भोजन न करना या अधिक भोजन करना पाचक अग्नि  को प्रभावित करता है।  इस विषय में ध्यान रखें। भोजन सरल , सादा  , सात्विक  नित्य अवश्य करें। कम से कम  १०-२०  प्रतिशत भोजन का भाग  कच्चा  सब्जी हो। अंकुरित  पदार्थ भी साथ लें।  बीच  में  जल  न लें।  जल आधा  घंटे  बाद पिएँ , धीरे धीरे  समय बढ़ाएं। स्वाद के लिए नहीं ,स्वास्थ  के लिए खाएं।

१०।  भोजन के बाद नमक मिले  पानी से कुल्ला  करें।  कोई भी अन्न का भाग मुखनालिका  में न रहे। भोजन के बाद थोड़ी देर  विश्राम  अवश्य  कर लें।

११।  हमेशा  शांत  और प्रसन्नचित्त रहे।  प्रसन्न  मन से रोग  दूर भाग जाते हैं।  किसी के  प्रति  अत्यधिक  राग - द्वेष  न रखें।  ध्यान रखें , चिंता से  अपनी ही  हानि  होती है।

१२।  जहाँ तक  हो सके , भोजन के पश्चात  कुछ देर विश्राम  के अलावा  दिन में  न सोने  की आदत डालें ; थोड़ी असुविधा  होगी, पर थोड़े समय में आदत  पद जाने पर रात्रिचर्या  का अभ्यास  नियमित हो जाएगा।

१३।  अपने घर में  ताज़ी हवा  सतत  आती  रहे , इसका ध्यान रखें। बंद कमरे, एयरकंडीशनर , कूलर  आदि के प्रयोग से हम  रोगों को  आमंत्रित  करते हैं। अगरबती , कपूर  अथवा  चन्दन का  धुआं  हर घर में  कुछ क्षणों  के लिए रोज करें। प्रतिदिन  या  सप्ताह में  एक या दो वार  अग्नि होत्र , यज्ञ  करते रहने से  रोग कभी नहीं आते।
१४। श्वास  सदा  नाक से  और सहज ढंग से  लें।  मुह से  श्वास  न लें।  इससे  आयु काम होती है और रोग होने का  दर  रहता है।

१५।  मन को हमेशा  उत्तम  विचारों में  लीन रखें। श्रेष्ठ - सकारात्मक  चिंतन  बढ़ाने वाले  साहित्य का  स्वाध्याय  प्रतिदिन करें।

१६।  सुबह  उठते ही  ठंडा पानी कम  से कम  ३-४ गिलास  तक धीरे धीरे पिएँ।  यदि पानी  ताम्बे के पात्र में रखा होगा तो  अधिक लाभ करेगा , उससे  दिन भर  स्फूर्ति  बानी रहेगी , पेट साफ  रहेगा  तथा  अनेक रोग  नहीं आएंगे।

१७।  धुप का सेवन  अवश्य करें।  पृथ्वी - तत्त्व  से भी  संपर्क में रहने का प्रयास करें।

१८।  सप्ताह में एक दिन  , एक समय  उपवास  ब्रत  का पालन करें  तथा  निम्बू मिश्रित  जल लें।

१९।  भोजन करते समय  न चिढ़ें , क्रोध न करें। रात्रि का भोजन  सोने से तीन घंटे पहले करें।

२०।  सोने से पहले पैरों को  अच्छी तरह धो लें।  इष्टदेव का स्मरण  करें। मुह ढककर  न सोएं।

२१। सुबह - सुबह  हरी दुब पर टहलना  संभव  हो तो  नंगे पैरों टहलें।  पैरों पर दुब  के दबाब  से  तथा  पृथ्वी - तत्त्व के  संपर्क से कई रोगों की स्वतः  चिकित्सा  हो जाती है।

२२।  सोते समय शिर  उत्तर  या  पश्चिम  दिशा  में रख कर न  सोएं। दिशा का यह ज्ञान  रख कर सोने से बहत सारि  व्याधिओं  से  बचा  जा सकता है।

२३।  प्रौढ़ावस्था  का आरम्भ  ५० वर्ष के बाद  माना जाता है। इसके बाद  क्रमशः  दिन में  एक बार ही अन्न लें। बाकि समय  दूध व  फल  पर रहें। चावल , नमक , घी , तेल  , आलू , तली -भुनी  चीजें क्रमशः  काम करते  जाएं। आहार  सात्विक और जितना  हल्का -सुपाच्य  हो , उतना ही  श्रेष्ठ है।

२४।  सवेरे  उठते ही बिस्तर पर लेटे-लेटे  अपनी  हथेलिओं  को रगड़ें ; उनका  दर्शन  करें और फिर बैठ कर नया  जन्म  होने की भावना करें।

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