स्वस्थबृत्त की जब हम चर्चा करते हैं तो दो नामों की विशेष चर्चा होती है --- पंचकर्म एवं षट्कर्म। आचार्य
चरक कायचिकित्सा को षट्कर्म सिद्धि के रूप में मानते हैं। उनके अनुसार ये षट्कर्म है ---१ लंघन ;
२ बृंहण ; ३ रक्षण ; ४ स्नेहन ; ५ स्वेदन एबं ६ स्तंभन। एक है शोधन , दूसरा है शमन। शोधन यदि
ठीक से हो तो दोषों का प्रकोप नहीं होता। पंचकर्म चिकित्सा प्रधानतः शशोधन चिकित्सा है। दूसरी और
घेरंड संहिता भी हठयोग के अंतर्गत शरीर शोधन हेतु षट्कर्मों की बात कहती है। ये हैं धोती, नेति, नौलि, त्राटक
तथा कपाल भाति। छहों क्रियाएँ शरीर शोधन के लिए हैं। योगिराज घेरंड कहते हैं --''षट्कर्मों द्वारा शरीर का
शोधन कर आसनों से शरीर को दृढ़ करना चाहिए, मुद्राओं से उन्हें स्थिर कर प्राणायाम से स्पूर्ति एवं लघुता
प्राप्त करें। प्रत्याहार से धीरता बढ़ती है, ध्यान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार एवं निर्विकल्प समाधि द्वारा
निर्लिप्त साधक मुक्त हो जाता है। ''
योग के षट्कर्म से आयुर्वेद के षट्कर्म अलग हैं। फिर जब हम पंचकर्मों की चर्चा करते हैं तो शरीर
विज्ञान --कायचिकित्सा के मर्म के अनुरूप चरक, शारंगधर, भावप्रकाश , उल्हन आदि ने जो पंचकर्म का
बिभाजन किया है , वह इस प्रकार है --पूर्व कर्म, पश्चात कर्म, प्रधान कर्म। पूर्व कर्म में हैं -- दीपन, पाचन,
स्नेहन एवं स्वेदन। पश्चात कर्म में विशेष आहार --व्यबस्ता है तथा प्रधान कर्म है ---वामन, विरेचन ,
वस्ति , शिरोविरेचन , रक्त मोक्षण। वस्ति में अनुवासन एबं आस्थापन आते हैं।
पंचकर्मों की महत्ता चरक सूत्र में बताई गई है। चरक कहते हैं की इनसे कायाग्नि तीक्ष्ण हो जाती है ,
व्यधिओं का प्रशमन हो जाता है , स्वस्थ्य वापस ठीक होने लगता है , इन्द्रियां प्रसन्न होती है , शरीर का
वर्ण पुनः लोट आता है , बुढ़ापा विलम्ब से आता है , रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है।
पांच कर्म काया चिकित्सा का मूल आधार है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के ये आधारभूत कर्म हैं। संशोधन
करना अति अनिवार्य है। बिना उसके सारे चिकित्सकीय कर्म अधूरे मने जाते है। पांच कर्म संशोधन
तथा पूरक कर्म जुड़ जाने से एक पूर्ण चिकित्सा भी है। चरक स्थान --स्थान पर पांच कर्मा की स्वस्थ
वृत्त , रसायन , बाजीकरण , शल्य --शालाक्य , भुत विकारों की चिकित्सा तथा विष -- विकारों की
चिकित्सा के परिपेक्ष्य में महत्ता बताते है। शुश्रुत भी उनका समर्थन करते है।
उपयुक्त् ऋतु में संशोधन कर्म का उपयोग स्वस्थवृत्त का अंग मन गया है। चरक कहते हैं की हेमंत
रूरतु में संचित दोष को बसंत में ; ग्रीष्म ऋतु में संचित दोष को वर्षाकाल में और वर्षाऋतु में संचित
दोष को शरद ऋतु में उपयुक्त संशोधन कर्मों द्वारा मुक्त कर दिए जाने पर मनुष्य में ऋतु प्रभाव से
उत्पन्न होने वाले रोग नहीं होते। आज इन्ही रोगों का बाहुल्य है। ऋतु चर्चा की किसी को भी जानकारी
नहीं है। फिर रोगी होने के वाद चिकित्सकों की शरण में जाते हैं। रोग आने से पूर्व यदि योग एवं
आयुर्वेद का थोडा सा भी ज्ञान अपने जीवन में उतार लें तो कोई भी कभी भी रोगी न हो।
सुश्रुत कहते हैं की रोगोत्पत्ति के पूर्व ही दोषों का हरण कर लेना बुद्धिमान वैद्यो का कर्त्तव्य है। इसके
लिए वसंत में कफ का, शरद में पित्त का तथा वर्षा में वात का शमन इसलिए करना चाहिए की ये उन दोषों के
प्रकोपकाल हैं। अष्टांग हृदय में वागभट्ट कहतें हैं कि ग्रीष्म ऋतु अति उष्ण ,वर्षा ऋतु अत्यधिक वर्षा वाली तथा
शीत ऋतु अत्यधिक ठंडी होती है। स्वभावतः इनमें दोषों का प्रकोप होता है। अतः संधि कल में दोषित दोषों का
शमन करना अनिवार्य है। ऋतु -- विपर्यय की कारन आज ग्रीष्म ऋतु में ओलों की वर्षा से ठण्ड देखि जाती है।
ठंडक में गर्मी ततयः वर्षा की हीनता देखि जा रहीहै। ऐसे में सभी दोषो का प्रकोप चरम सीमा पर होता है।
उस पर हमारा आहार भिो बीकृत , ऋतु प्रतिकूल होता है। इसीलिए रोगो का बाहुल्य है। सभी का उपचार है
पंचकर्म -- सशोधन एबं सशमन का उपचार क्रम।
सुश्रुत सशोधन कर्म के लिए निम्न लिखित सिद्धांत देते हैं --
१ शिशिर में कफ का संचय तथा वाट का प्रशमन होता है। निर्दिस्ट कर्म है -- दीपन , पाचन।
२ बसंत में कफ का प्रकोप तथा वाट का प्रशमन होता है। निर्द्धिस्ट कर्म है -- वमन
३ ग्रीष्म में वाट का संचय एबं कफ का प्रशमन होता है। निर्द्धिस्ट कर्म है --वात हर अआहार -- विहार।
४ वर्षा में पित्त एबं कफ का संचय तथा वाट का प्रकोप होता है। निर्द्धिस्ट कर्म है वस्ति।
५ शरत में पित्त एबं कफ का प्रकोप होता है तथा वाट का प्रशमन। निर्द्धिस्ट कर्म है --विरेचन।
६ हेमंत (ठंडक की शुरुवात ) में कफ का संचय होता है, वात का प्रकोप तथा पित्त का प्रशमन , ऐसे में वस्ति
कर्म निर्दिस्ट है।
१ -स्नेहन कर्म ----
पूर्व कर्म का यह एक प्रमुख अंग है। चरक सूत्र का तेरहवाँ अध्याय इसकी विस्तृत व्याख्या करता है। स्नेहन
अनिवार्य है। बिना स्नेहन के संशोधन शरीर में उपद्रव मचा सकता है। स्नेहन हेतु जो द्रव्य प्रयुक्त होते हैं
, वे स्निग्ध , गुरु , मृदु गुण वाले होते हैं। घी , तैल , वसा एवं मज्जा ये चार प्रमुख स्नेह वर्ग में आते हैं। इनमें से
घृत सर्वोत्तम है। ऋतु अनुसार द्रब्य अलग --अलग है। शरत ऋतु में घृत , बसंत में वसा एबं सम्मिश्रित
ऋतु में तैल पान बताया गया है। अति उष्ण तथा अति शीतकाल में स्नेहन का निषेध किया गया है।
अनिवार्य है। बिना स्नेहन के संशोधन शरीर में उपद्रव मचा सकता है। स्नेहन हेतु जो द्रव्य प्रयुक्त होते हैं
, वे स्निग्ध , गुरु , मृदु गुण वाले होते हैं। घी , तैल , वसा एवं मज्जा ये चार प्रमुख स्नेह वर्ग में आते हैं। इनमें से
घृत सर्वोत्तम है। ऋतु अनुसार द्रब्य अलग --अलग है। शरत ऋतु में घृत , बसंत में वसा एबं सम्मिश्रित
ऋतु में तैल पान बताया गया है। अति उष्ण तथा अति शीतकाल में स्नेहन का निषेध किया गया है।