रविवार, 11 अक्तूबर 2015

स्वस्थशरीर | स्वस्थबृत्त का विज्ञानं | पंचकर्म


स्वस्थबृत्त की जब हम चर्चा करते हैं तो दो नामों की विशेष चर्चा होती है --- पंचकर्म एवं षट्कर्म। आचार्य  

चरक  कायचिकित्सा  को षट्कर्म  सिद्धि के रूप में  मानते  हैं।  उनके  अनुसार  ये  षट्कर्म  है ---१  लंघन ; 

२ बृंहण ; ३  रक्षण ; ४  स्नेहन ; ५  स्वेदन  एबं ६  स्तंभन।   एक  है  शोधन , दूसरा  है  शमन।  शोधन  यदि 

 ठीक  से  हो तो  दोषों का  प्रकोप  नहीं होता।  पंचकर्म चिकित्सा   प्रधानतः  शशोधन  चिकित्सा  है।  दूसरी और

  घेरंड संहिता भी हठयोग के अंतर्गत शरीर शोधन हेतु षट्कर्मों की बात कहती है। ये हैं धोती, नेति, नौलि, त्राटक

 तथा कपाल भाति। छहों क्रियाएँ शरीर शोधन के लिए हैं। योगिराज घेरंड कहते हैं --''षट्कर्मों द्वारा शरीर का

 शोधन कर आसनों से शरीर को दृढ़ करना चाहिए, मुद्राओं से उन्हें स्थिर कर प्राणायाम से स्पूर्ति एवं  लघुता 

प्राप्त करें। प्रत्याहार से धीरता बढ़ती है, ध्यान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार एवं निर्विकल्प समाधि द्वारा 

निर्लिप्त साधक मुक्त हो जाता है। ''

              योग के षट्कर्म से आयुर्वेद के षट्कर्म अलग हैं। फिर जब हम पंचकर्मों की चर्चा करते हैं तो शरीर

 विज्ञान --कायचिकित्सा के मर्म के अनुरूप चरक, शारंगधर, भावप्रकाश , उल्हन  आदि ने जो  पंचकर्म  का 

बिभाजन  किया  है , वह  इस प्रकार  है --पूर्व कर्म, पश्चात कर्म, प्रधान कर्म। पूर्व कर्म में हैं -- दीपन, पाचन, 

स्नेहन एवं स्वेदन।  पश्चात कर्म  में विशेष  आहार --व्यबस्ता  है  तथा प्रधान  कर्म है ---वामन, विरेचन , 

वस्ति , शिरोविरेचन , रक्त  मोक्षण।   वस्ति में  अनुवासन  एबं आस्थापन  आते हैं। 

    पंचकर्मों  की  महत्ता  चरक सूत्र  में बताई  गई है।  चरक कहते हैं  की इनसे  कायाग्नि  तीक्ष्ण  हो जाती  है , 

 व्यधिओं  का  प्रशमन  हो जाता है , स्वस्थ्य  वापस  ठीक  होने लगता  है , इन्द्रियां  प्रसन्न  होती है , शरीर का

 वर्ण  पुनः  लोट  आता है , बुढ़ापा विलम्ब  से आता है , रोग रहित  दीर्घायु  प्राप्त होती है। 

    पांच कर्म  काया चिकित्सा का मूल आधार है।  आयुर्वेदिक  चिकित्सा  के ये  आधारभूत  कर्म हैं।  संशोधन

  करना अति  अनिवार्य  है।  बिना  उसके  सारे  चिकित्सकीय  कर्म  अधूरे  मने जाते  है। पांच कर्म संशोधन

  तथा पूरक कर्म  जुड़  जाने  से एक पूर्ण  चिकित्सा  भी है।  चरक स्थान --स्थान  पर पांच कर्मा की स्वस्थ

  वृत्त ,  रसायन , बाजीकरण , शल्य --शालाक्य , भुत  विकारों  की चिकित्सा  तथा  विष -- विकारों  की

  चिकित्सा के  परिपेक्ष्य  में महत्ता  बताते है।  शुश्रुत  भी उनका  समर्थन  करते है।  


        उपयुक्त्  ऋतु  में संशोधन  कर्म  का उपयोग  स्वस्थवृत्त  का अंग  मन गया है।  चरक  कहते हैं  की हेमंत

 रूरतु  में  संचित  दोष   को  बसंत में ; ग्रीष्म ऋतु  में  संचित  दोष  को  वर्षाकाल  में  और  वर्षाऋतु में  संचित

 दोष को  शरद  ऋतु  में उपयुक्त संशोधन  कर्मों  द्वारा  मुक्त  कर  दिए  जाने पर  मनुष्य  में  ऋतु प्रभाव  से

  उत्पन्न  होने वाले  रोग  नहीं होते।  आज  इन्ही रोगों  का  बाहुल्य  है।  ऋतु चर्चा की  किसी  को भी जानकारी

  नहीं है।  फिर  रोगी  होने के  वाद  चिकित्सकों  की  शरण में जाते हैं।  रोग  आने से पूर्व  यदि योग  एवं 

  आयुर्वेद  का  थोडा सा  भी  ज्ञान  अपने  जीवन में उतार  लें  तो  कोई भी  कभी भी  रोगी न हो। 

        सुश्रुत कहते हैं की रोगोत्पत्ति  के पूर्व ही दोषों का हरण कर लेना बुद्धिमान वैद्यो का कर्त्तव्य है। इसके

 लिए वसंत में कफ का, शरद में पित्त का तथा वर्षा में वात का शमन इसलिए करना चाहिए की ये उन दोषों के 

प्रकोपकाल हैं। अष्टांग हृदय में वागभट्ट कहतें हैं कि ग्रीष्म ऋतु अति उष्ण ,वर्षा ऋतु अत्यधिक वर्षा वाली तथा 

शीत ऋतु अत्यधिक ठंडी होती है। स्वभावतः इनमें दोषों का प्रकोप होता है।  अतः संधि कल में दोषित दोषों का

 शमन करना  अनिवार्य है।  ऋतु -- विपर्यय  की कारन आज ग्रीष्म ऋतु में ओलों की वर्षा से ठण्ड देखि जाती है। 
 ठंडक में  गर्मी ततयः वर्षा की हीनता  देखि जा रहीहै।  ऐसे  में सभी दोषो का प्रकोप चरम सीमा पर होता है। 

 उस पर हमारा आहार भिो बीकृत , ऋतु प्रतिकूल  होता है।  इसीलिए रोगो का  बाहुल्य है।  सभी का उपचार है 

 पंचकर्म -- सशोधन  एबं  सशमन  का उपचार क्रम। 

  सुश्रुत सशोधन कर्म के लिए निम्न  लिखित सिद्धांत  देते हैं  --

१ शिशिर में  कफ का  संचय तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्दिस्ट कर्म है -- दीपन , पाचन। 

२ बसंत में कफ का प्रकोप तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है -- वमन 

३  ग्रीष्म  में वाट का संचय एबं कफ का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है --वात हर  अआहार -- विहार। 

 ४  वर्षा  में पित्त एबं कफ का संचय तथा वाट का प्रकोप होता  है।  निर्द्धिस्ट कर्म है वस्ति। 

५  शरत में पित्त एबं कफ का प्रकोप होता है तथा  वाट का प्रशमन।  निर्द्धिस्ट कर्म है --विरेचन। 

६  हेमंत (ठंडक की शुरुवात ) में कफ का संचय होता है, वात  का प्रकोप  तथा पित्त का प्रशमन , ऐसे में  वस्ति

  कर्म  निर्दिस्ट  है। 

१ -स्नेहन कर्म ----
   पूर्व कर्म का यह एक प्रमुख अंग है। चरक सूत्र का तेरहवाँ अध्याय इसकी विस्तृत व्याख्या करता है। स्नेहन

अनिवार्य है। बिना स्नेहन के संशोधन शरीर में उपद्रव मचा सकता है। स्नेहन हेतु जो द्रव्य प्रयुक्त होते हैं

, वे स्निग्ध , गुरु , मृदु गुण  वाले होते हैं। घी , तैल , वसा एवं मज्जा ये चार प्रमुख स्नेह वर्ग में आते हैं। इनमें से

 घृत सर्वोत्तम है। ऋतु   अनुसार  द्रब्य  अलग --अलग  है।  शरत ऋतु में  घृत , बसंत में  वसा  एबं  सम्मिश्रित

 ऋतु में  तैल  पान  बताया गया है।  अति उष्ण  तथा अति शीतकाल  में स्नेहन  का निषेध  किया गया है। 

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

स्वस्थशरीर | घरलू चिकित्सा | जोड़ों का दर्द


शरीर में  अम्ल  तत्व  बढ़  जाने  से  'जोड़ों ' का दर्द  होता  है।  अम्ल  तत्व  के कारण  रक्त  दूषित  हो  जाता

 है।  शरीर में वायु  का  प्रकोप बढ़  जाने  से  दूषित  पदार्थ  जोड़ों  में  रुकने  लगते  हैं , जिनसे  दर्द  होता  है 

 और  शरीर  में  अकड़न  आ  जाती  है।  रक्त  दूषित  होने  से  शरीर  का  विषाक्त  पदार्थ  पुरे  शरीर  में

  संचारित  होता  है , जिससे  ज्वर  भी  रहने  लगता  है।  साथ  साथ  जोड़ों में  सूजन  आ  जाती  है।   धीरे  धीरे

  यह  रोग  पुरे  शरीर के  जोड़ों में  फैल  जाता  है , जिससे  रोगि  का  चलना , बैठना  आदि  मुस्किल  हो जाता 

 है। 

   रक्त  के  दूषित  होने से  ही  रोग होता  है।  जो  कारण  स्वास  तंत्रों  के  कारण  है , वे  ही  कारण इस  रोग के

  भी  है।  इसमें  रक्त  अम्ल  तत्व  के  आक्लॉजिक  एसिड  अधिक  बनने  से  लगता  है , जो  शरीर  के  जोड़ों  

में  एकत्र  होकर  सूजन,  दर्द  तथा  अकड़न  पैदा  करता  है।  यही  इस  रोग  का  प्रधान कारण  है। 

प्राकृतिक  उपचार 

  त्रिफला  चूर्ण  से  पेट  को  साफ  करना  पहला  उपचार  है।   एक  चम्मच  त्रिफला  चूर्ण  गुनगुने  पानी  से

  रात  को  सोते  समय  अंतिम  वस्तु के  रूप  में  ले लें। 

स्नान  करने  वाले  बड़े  टॉब  में  १००  ग्राम  मैग्नेशिया  नमक  तथा  १००  ग्राम  खाने  वाला  नमक  गर्म  पानी

  में  डालकर  आधा  घंटा  रोगी को  उसमें लिटाना  और  सभी  जोड़ों  तथा  शरीर  पर  तौलिए  से  पानी  में

  मालिस  करनी  चाहिए।  जब तक  रोगी  टब  में  रहे, सर पर  ठंडे  पानी  का  तौलिया  रखें।  सिर  पर  गर्म

 पानी  न  डालें।  उसके  बाद  गर्मी  हो  तो  ठंडे  पानी से  स्नान  करवाएं  और  सर्दी  हो तो  हलके  गर्म  पानी

  से स्नान करवाएं  तथा  शरीर को सुख कर  कपडे  पहनकर  स्नान घर  से  वाहर  निकालें।   उसके  बाद  ३०

 मिनट या  एक  घंटे  केलिए  रोगी को  सुला  दे।  सुलाने  से  पहले  जोड़ों  को  थोड़ा  व्यायाम  दें  ताकि  जोड़ों में

 जमा हुआ  विकार  अपना  स्थान  छोड़ें। 

बात टब  न हो तो  दस  मिनट  का  वाष्प  स्नान  या  गर्म  पाव  का  स्नान  दे।  ३०  मिनट का  धुप  स्नान  दें

 और   धुप में  शरीर तथा  जोड़ों की  किसी  आयुर्वेदिक  औषधि  युक्त  तेल  मालिस  करें  या  लाल  रंग की

  बोतल  में  नारियल के  तेल को २० -२५  दिन तक  धुप में  रखें।  ऐसा  करने से  यह तेल भी  जोड़ों  की

  मालिस  करने  योग्य  बन जाएगा।   जब शरीर  धुप  में पूरी  तरह  गर्म हो जाए  तो जोड़ों को  खोलें  बंद  करें

  और उन्हें  पूरा  वयम  दें।  

यौगिक  उपचार ---

  • योगोपचार  भी  प्राकृतिक  उपचार  का ही  विशिष्ट  अंग  है --रोगी कुंजल  , जलनेति व  सूत्रनेती  का  अभ्यास  कर  शरीर को  शुद्ध  करे। 
  • दर्द  और सूजन  काम होने  तथा  जोड़  खुलने  पर  योगासनों  का  अभ्यास  करना  शुरू  कर दे --सूर्य  नमस्कार ,  कटी  चक्रासन  , वज्रासन ,  मकरासन , पावनामुक्तासन  का  अभ्यास  करने  से  जोड़ों के रोग  में  विशेष  लाभ  होता  है। 
  • योग  निद्रा  का  रोजाना  ३०  मिनट  का  अभ्यास  करके  शरीर को  शिथिल  करने से  भी  विशेष  आराम  मिलता है। 
  • यदि  दर्द  और  सूजन  घुटनों में  , कलाइयों  में , कुहनी  या  कंधोंमें  हो  तो उस  स्थान पर ३ मिनट  गर्म , २ मिनट ठंडा  सेक  करें। उनकी  मालिस  करें  तथा  उन जोड़ों को  व्यायाम  दें। 
आहार  चिकित्सा
  • भोजन भी  रोग को  ठीक  करने के लिए  जरुरी  है।  उपचार  कितना भी  कारगर  हो  और भोजन  अनुकूल  न हो  तो रोगी  स्वस्थ्य  लाभ  प्राप्त  नहीं  कर पाता  है।  इस रोग में  भोजन  ऐसा  होना  चाहिए  जिसमें  नियमित  विटामिन 'ए ' तथा  विटामिन 'डी '  की मात्रा  अधिक  हो  लेकिन  टमाटर  तथा  पालक  का साग  या  रास  न हो क्योंकि   इनमें एक्जोलिक एसिड  होता  है। 
  • कच्ची  सब्जिओं  के रास  विशेष  कर  गाजर , खीरा , पेठा , लौकी , अदरक  तथा फलों  के रस , संतरा, मौसमी , सेब , अनार , अंगूर  आदि  लेने से जोड़ों के दर्द , सूजन  तथा  अकड़न  थोड़े ही  दिनों में कम की  जा  सकती है। 
  • इस रोगमें  लहसुन  तथा  अदरक  का  प्रयोग खुल कर  होना चाहिए।  लहसुन  के एक चम्मच  रस  में आधा  चम्मच  शहद  मिला कर  दिन में  दो बार  लेने से  वायु  का  प्रकोप कम   होता है। सब्जी में भी  इन्हे  डालें। 
  • योग द्वारा  चिकित्सा  करने से अक्सर  रोगों में  उभार  आ जाता  है  क्योंकि  रोग को  शरीर से बाहर  निकलना  होता  है , दबाना  नहीं।  घबराने  की  जरुरत  नहीं।  उपचार को  कम कर दे या  दो -तीन  दिनों के लिए  बंद  कर दें।  भोजन  को  पुरे परहेज से चलाते  रहें।  

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

स्वस्थशरीर | घरेलु चिकित्सा | प्रमेह रोग


प्रमेह  शब्द  ' प्र' उपसर्गपूर्वक  'मिह ' धातु  लगाने  पर बनता  है।  इसका  ताप्तर्य  है अधिक  मात्रा में  बिकारयुक्त  मूत्र  का  निकलना।  बात , पित ,कफ  भेद  से  इसके  अनेक  भेद  मने  जाते हैं। 

प्रमेह का  कारण ----सुखपूर्वक  बैठे  रहने  या  सोनेसे  कफ की  बृद्धि  होती  है।  इसीलिए  कहा  जाता  है  की
  ग्रीष्म  ऋतु  के  अतिरिक्त  अन्य  ऋतुओं  में  सोना  निषिद्ध  है ;क्योंकि  इससे  कफ की  बृद्धि  होती  है.
शारीरिक  परिश्रम  करने से  कफ  घटता  है।  इसके  अलावा  स्वप्नसुख , दही  का  अत्यधिक  सेवन , दूध  एवं
  नए  अन्न  का अधिक  सेवन , वर्षा  का  नया  जल , गुड ,चीनी , मिस्ररी ,विविध  प्रकार की मिठाइयां  तथा  कफकारक  आहार  विहार के कारण  प्रमेह  पैदा  होता है।

प्रमेह का   समाप्ति ---कुपित दोष ( कफ ,पित्त ,वात ) अपने -अपने  प्रदूषक  कारणों  को  पाकर वस्ति ( मूत्राशय ) में  पहुंचकर  मूत्र को  दूषितकर  अपने-अपने  लक्षणों  से युक्त  विभिन्न  प्रकार  के  प्रमेह को उत्पन्न कर देते  है।  सुश्रुत के  अनुसार - प्रमेहकारक  आहार -विहार का सेवन  करने  वालों के  अपरिपक़्व (आम ) दशा  में  स्थित  वाट, पित्त ,कफ ,मेद , वसा  के साथ  मिलकर  मूत्र  स्रोतों  से निचे की  और  आकर  मूत्राशय  के मुख  का  सहारा  लेकर जब  वे  दोष  वहार  निकलने  लगते हैं , तब  प्रमेह की उत्पति  होती है।

कफज  प्रमेह की  उत्पति ---कफकारक  आहार - विहार  के  सेवन करने से  बढ़ा  हुआ  कफ  दोष मेद ,मॉस  तथा  मूत्राशय  में  स्थित  शरीर  सम्बन्धी क्लेद (गीलापन ) को दूषित कर  कफज प्रमेह का उत्पन्न करता है।

पित्तज  प्रमेह की उत्पति ---उष्ण  स्पर्श  तथा  बिर्ययुक्त  पदार्थों का  सेवन  करने  से  बढ़ा  हुआ  पिट दोष  मेह , मांस  तथा  शरीर  संबंधी  क्लेद  एबं  पिट को  दूषित  कर  पित्तज  प्रमेह की  पैदा  करता  है।

बातज  प्रमेह  की उत्पति ---बढ़ा हुआ  बात  दोष  धातुओं (वसा , मज्जा ,ओज ,लसीका ) को  मूत्राशय  में  खींचकर  बातज  प्रमेह को  उत्पन्न  करता है।

प्रमेहों की  सध्यासाध्यता ---समक्रिया  होने से  सामान्य  कफजन्य  दस  प्रमेह  साध्य  या  ठीक  हो सकते है, विषम  क्रिया वाले होनेके  कारण  पित्तज  छह  प्रमेह  याप्य  होते है।  महत्यय  निदान  विनाशकारी  होने  के  कारण  वातज  चार  प्रमेह  असाध्य  होते है।

समक्रियतवान् ---इसका  ताप्तर्य  है  - दोष  कफ , दृश्य  मेदस , मांस  एबं  शरीर का  गीलापन।  इन  दोनों  की  चिकित्सा  कटु - तिक्त रस  प्रधान द्रव्य  है , जो दोनों में  सामान  प्रभावकारी  होते  हैं।  अतः  इन्हे  साध्य  माना  जाता है।

विषमक्रियत्वां ---एक ही  प्रकार  के औषोधी  के  उपचार  से जहाँ  दोष एबं  दृष्यो  का शमन  हो जाए , उसे  सम  क्रिया  कहते हैं और  इसके  ठीक  विपरीत को  विषम  क्रिया  कहते हैं।   विषम  क्रिया के  अंतर्गत  पित्तज  प्रमेह  के दोष एबं  दूष्य  आते  हैं।  पित्त  की चिकित्सा  में  मधुर  रास  प्रधान  द्रव्य  होते हैं।  इसकी  चिकित्सा  विशेष  कुशलता  के साथ  की  जनि  चाहिए  अन्यथा  रोग  और  भी  जटिल हो सकता है।

महत्ययत्वान (विनाशकारी )--वातज प्रमेह को  असाध्य  माना  जाता है।  इस  प्रमेह में वात  दोष  रोगी  की  वसा , मज्जा , ओज , लसीका  आदि  धातुओं  पर अपना  प्रभाव डाल  कर   उनका  ह्रास  करता  हुआ  अनेक  ओपद्रवीक  लक्षणों  को  उत्पन्न  कर देता है।  इसी स्थिति को  महत्यय  ( विनाशकारी )  कहा  गया  है।

प्रमेह के  भेद --प्रमेह रोग के  दोष है -- वात , पित्त  एबं  कफ और  इसके दूष्य  हैं --मेद , रक्त , शुक्र , अम्बु (शरीर का जलीय  भाग ), वसा , लसीका (मांस और त्वचा  केबीच   स्थित  जलीयांश ) , मज्जा , रास , ओज  एबं मांस।  इन  दोष --दृष्यों  के  परस्पर  संयोग  होने  के  कारण  प्रमेह  बीस  प्रकार के माने जाते हैं ---

१.दस कफज प्रमेह

२.छह पित्तज  प्रमेह

३. चार वातज  प्रमेह

कफज प्रमेह ---इसके क्रमानुसार  भेद  है -

१  उदकमेह --आधुनिक  एलोपैथी  में इसे  डाइबिटीज  इन्सिपिड्स  कहते  है।  इसकी  उत्पति  बृक्क्शोथ    एबं  रक्त चाप  आदि के  कारण  मानी  जाती  है।

२ इक्षु  मेह --इसे एलिमेंटरी  ग्लाइकोसुरया  कहते  है। हलाकि  इस रोग में  मधुरता  होती है।, परन्तु  यह 'मधुमेह ' से एकदम  भिन्न  है।

३  सैंड्रा मेह --इसे  फास्फेट  यूरिआ  कहते है।  यह  फाइब्रिनुरिआ  के नाम भी जाना  जाता  है; क्योंकि  इसके मूत्र में  फाइब्रिन  की मात्रा  मिलती है।  इसीलिए  इसका  रंग  रक्त के सामान  लाल  होता  है।
४   सान्द्रप्रसाद मेह --सैंड्रा मेह एबं  सद्रप्रसाद  मेह  के बीच  कोई स्पष्ट  विभेदक  रेखा  खींची  नहीं गई  है।  इसे  भी फास्फेट  यूरिआ  के नाम से  पुकारा  जाता  है।  आचार्य  सुश्रुत  ने  इसे ' सुरा मेह ' कहा है।  जिस प्रकार  सूरा का  ऊपरी भाग  अत्यंत  स्वच्छ  और निचला  भाग  मटमैला  होता है , यह ठीक  उसी प्रकार  का होता है।

५ शुक्ल मेह --इसे सुश्रुत  एबं  बागभट  ने  पिंड मेह  अर्थात  आते की  आकृति का  प्रमेह कहा  है।  मूत्र में  शुक्लता  अन्नरस  के कारण  मानी जाती  है।  इसे एल्बूमिन्युरिया  कहते  है। इसके १२  भेद  माने जाते हैं।  जैसे --१  एल्ब्युमिन  मेह , २  आंगतुक एल्ब्युमिन मेह , ३ चक्रीय मेह ,४  अज्ञान  - हेतुक मेह ५  कूट मेह ,६  ज्वरजनित  मेह , ७  अधः स्थितिज  मेह, ८  उर्धस्थितिज मेह ,  ९  शरीर  क्रियात्मक  मेह , १०  परिश्रामोत्त मेह , ११  बृक्कज  मेह , १२  यथार्थ मेह।

६  शुक्रमेह --- रोगमें  मूत्र , शुक्र  मिश्रित  या  शुक्राम  होता है। इसे स्पर्मेटोरिया  कहते हैं।  यह  रोग अधिकतर  युवावस्था में होता है।

७ शीतमेह --इसमें  मूत्र का स्वाद  मदर एबं शीतल  होता है।  रोगी बारबार  मूत्र त्याग  करता है।  मूत्र में शर्करा  की मात्रा भी  पायी  जाती  है।  सुश्रुत  इसे ,' फेन  मेह'  कहते हैं।

८  शनै  मेह ---इसमें रोगी के  मूत्रदाह  स्रोतोमें  रूकावट  आ  जाती है।  अतः  वह  धीरे धीरे  मूत्र त्याग  करता  है।

९  सिकता  मेह ---इसमें रोगी के  मूत्र में बालू के  छोटे छोटे  कण  सामान  कोई चीज  आ जाती है।

१०  लालामेह ---इसमें रोगी के मूत्र में  लार  दिखाई  पड़ती  है।  सुश्रुत ने इसे ' लवण  मेह ' की संज्ञा  दी है।

 पित्तज  मेह ---पित्तज मेह छह प्रकार का  माना  जाता  है।  ये  हैं --१  क्षार  मेह २.काल मेह ,३  निल मेह ,४. मज्जिष्ठ  मेह , ५  रक्त मेह , ६  हरिद्र मेह


क्षार  मेह --रोगीके  मूत्र का  गंध , वर्ण , रास , स्पर्श में  क्षार  जैसा  कोई तत्व  नजर  आता है।  यह रोग तब होता है , जब  मूत्र  मूत्राशय  में  देर तक रुका  रहता है।  इसे  एल्कलाइन  यूरिया  कहते  हैं।

काल  मेह ---सुश्रुतं ने काल मेह के स्थान पर अम्ल मेह की सत्ता  को  स्वीकार  किया  है।  इसमें  मूत्र  का रंग  काली स्याही  के सामान  होता है। इसे  इंडीकेन्युरिया  कहते हैं ; क्यों की इसमें इण्डोल  की मात्रा  बढ़ी  हुई  होती  है।

निल मेह ---इसमें  मूत्र  का वर्ण  नीला दिखाई  देता है।  यही  स्थिति  दो प्रकार  से  देखने  को मिलती  है।  कभी तो  पेशाब  करते  समय  ही  वह  नीली  दिखाई  देती है  या फिर  पेशाब  कर लेने के   बाद  उसका रंग नीला   हो जाता है।

४  हरिद्र  मेह ---इसमें  मूत्र  का  वर्ण  हल्दी के सामान होता  है।  यह रस  में  कटु  होता  है।  मूत्र  त्याग करते समय  रोगी  को  जलन  का  अनुभव  होता  है।  यह  स्थिति  रंजक  पित्त  की  अधिकता  के कारण  होती है।  इसे  बिलीरुबिन्यूरिआ  कहते है ; परन्तु  जब  उसमें  हीमोग्लोविन  की मात्रा  अधिक हो जाती है , तो उसे  हीमोग्लोबिनयूरिआ कहते है।

रक्तमेह ---इसमें  रोगी दुर्गन्धित , लवणरसयुक्त  तथा  लाल  रंग  का  मूत्र  बिसर्जीत  करता है।  इसमें  मूत्र  रक्तयुक्त तथा  रक्त कणों  से  मिश्रित  होता  है।   इसे  हिमीच्यूरिआ  कहते  हैं।

वातजमेह ---वातज मेह  चार प्रकार  के  कहे गए  हैं --१  मज्जमेह , २  ओजोमह  ३   वासमेह , लसीकामेह।   इन चार  प्रकार के  वातज  प्रमेहों  में वातदोष  की प्रधानता  होती है; हालाँकि  इसमें  कफ  तथा  पित्त की  भी  सत्ता  रहती है।  इन प्रमेहों को असाध्य  कहां  जाता है।

मज्जमेह ---दोष  प्रकोप  के कारण  मज्जा  आदि  धातुएं  घुल घुल कर  मूत्र  के साथ निकलने  लगती है। यही  स्थिति  क्षय रोगी  के साथ  भी  होती है।

ओजोमह ---इसे  मदुमेह भी कहा  जाता  है ; क्योंकि  इसमें  ओजोस  धातु का  क्षरण होते रहता  है। इसे  डाइबिटीज  मेलाइटस  कहते हैं।  प्रमेह की अंतिम अवस्था  को ही  मदुमेह कहते  है,जिसमें  मूत्र  शहद  के समान  हो जाता है। इसमें  शरीर  की  महत्वपूर्ण  धातु  ओजोस  का ह्रास  होने लगता है।

३  वासामेह ---इसमें  रोगी के मूत्र  में  वसा  अर्थात तेल  के समान  चिकनी  चीज  निकलती  है। इसे  लाइप्यूरिआ  कहते हैं।
 ४ लसीका नेह --इस रोग में  रोगी मदमस्त  हाती के निरंतर किन्तु  प्रवाह से  रहित अर्थात  बून्द बून्द  करके  लसीका  मिश्रित  मूत्र  का  त्याग  करता  है। इसमें  मूत्राशय  के मुख  खुल जाता है।