प्रमेह शब्द ' प्र' उपसर्गपूर्वक 'मिह ' धातु लगाने पर बनता है। इसका ताप्तर्य है अधिक मात्रा में बिकारयुक्त मूत्र का निकलना। बात , पित ,कफ भेद से इसके अनेक भेद मने जाते हैं।
प्रमेह का कारण ----सुखपूर्वक बैठे रहने या सोनेसे कफ की बृद्धि होती है। इसीलिए कहा जाता है की
ग्रीष्म ऋतु के अतिरिक्त अन्य ऋतुओं में सोना निषिद्ध है ;क्योंकि इससे कफ की बृद्धि होती है.
शारीरिक परिश्रम करने से कफ घटता है। इसके अलावा स्वप्नसुख , दही का अत्यधिक सेवन , दूध एवं
नए अन्न का अधिक सेवन , वर्षा का नया जल , गुड ,चीनी , मिस्ररी ,विविध प्रकार की मिठाइयां तथा कफकारक आहार विहार के कारण प्रमेह पैदा होता है।
प्रमेह का समाप्ति ---कुपित दोष ( कफ ,पित्त ,वात ) अपने -अपने प्रदूषक कारणों को पाकर वस्ति ( मूत्राशय ) में पहुंचकर मूत्र को दूषितकर अपने-अपने लक्षणों से युक्त विभिन्न प्रकार के प्रमेह को उत्पन्न कर देते है। सुश्रुत के अनुसार - प्रमेहकारक आहार -विहार का सेवन करने वालों के अपरिपक़्व (आम ) दशा में स्थित वाट, पित्त ,कफ ,मेद , वसा के साथ मिलकर मूत्र स्रोतों से निचे की और आकर मूत्राशय के मुख का सहारा लेकर जब वे दोष वहार निकलने लगते हैं , तब प्रमेह की उत्पति होती है।
कफज प्रमेह की उत्पति ---कफकारक आहार - विहार के सेवन करने से बढ़ा हुआ कफ दोष मेद ,मॉस तथा मूत्राशय में स्थित शरीर सम्बन्धी क्लेद (गीलापन ) को दूषित कर कफज प्रमेह का उत्पन्न करता है।
पित्तज प्रमेह की उत्पति ---उष्ण स्पर्श तथा बिर्ययुक्त पदार्थों का सेवन करने से बढ़ा हुआ पिट दोष मेह , मांस तथा शरीर संबंधी क्लेद एबं पिट को दूषित कर पित्तज प्रमेह की पैदा करता है।
बातज प्रमेह की उत्पति ---बढ़ा हुआ बात दोष धातुओं (वसा , मज्जा ,ओज ,लसीका ) को मूत्राशय में खींचकर बातज प्रमेह को उत्पन्न करता है।
प्रमेहों की सध्यासाध्यता ---समक्रिया होने से सामान्य कफजन्य दस प्रमेह साध्य या ठीक हो सकते है, विषम क्रिया वाले होनेके कारण पित्तज छह प्रमेह याप्य होते है। महत्यय निदान विनाशकारी होने के कारण वातज चार प्रमेह असाध्य होते है।
समक्रियतवान् ---इसका ताप्तर्य है - दोष कफ , दृश्य मेदस , मांस एबं शरीर का गीलापन। इन दोनों की चिकित्सा कटु - तिक्त रस प्रधान द्रव्य है , जो दोनों में सामान प्रभावकारी होते हैं। अतः इन्हे साध्य माना जाता है।
विषमक्रियत्वां ---एक ही प्रकार के औषोधी के उपचार से जहाँ दोष एबं दृष्यो का शमन हो जाए , उसे सम क्रिया कहते हैं और इसके ठीक विपरीत को विषम क्रिया कहते हैं। विषम क्रिया के अंतर्गत पित्तज प्रमेह के दोष एबं दूष्य आते हैं। पित्त की चिकित्सा में मधुर रास प्रधान द्रव्य होते हैं। इसकी चिकित्सा विशेष कुशलता के साथ की जनि चाहिए अन्यथा रोग और भी जटिल हो सकता है।
महत्ययत्वान (विनाशकारी )--वातज प्रमेह को असाध्य माना जाता है। इस प्रमेह में वात दोष रोगी की वसा , मज्जा , ओज , लसीका आदि धातुओं पर अपना प्रभाव डाल कर उनका ह्रास करता हुआ अनेक ओपद्रवीक लक्षणों को उत्पन्न कर देता है। इसी स्थिति को महत्यय ( विनाशकारी ) कहा गया है।
प्रमेह के भेद --प्रमेह रोग के दोष है -- वात , पित्त एबं कफ और इसके दूष्य हैं --मेद , रक्त , शुक्र , अम्बु (शरीर का जलीय भाग ), वसा , लसीका (मांस और त्वचा केबीच स्थित जलीयांश ) , मज्जा , रास , ओज एबं मांस। इन दोष --दृष्यों के परस्पर संयोग होने के कारण प्रमेह बीस प्रकार के माने जाते हैं ---
१.दस कफज प्रमेह
२.छह पित्तज प्रमेह
३. चार वातज प्रमेह
कफज प्रमेह ---इसके क्रमानुसार भेद है -
१ उदकमेह --आधुनिक एलोपैथी में इसे डाइबिटीज इन्सिपिड्स कहते है। इसकी उत्पति बृक्क्शोथ एबं रक्त चाप आदि के कारण मानी जाती है।
२ इक्षु मेह --इसे एलिमेंटरी ग्लाइकोसुरया कहते है। हलाकि इस रोग में मधुरता होती है।, परन्तु यह 'मधुमेह ' से एकदम भिन्न है।
३ सैंड्रा मेह --इसे फास्फेट यूरिआ कहते है। यह फाइब्रिनुरिआ के नाम भी जाना जाता है; क्योंकि इसके मूत्र में फाइब्रिन की मात्रा मिलती है। इसीलिए इसका रंग रक्त के सामान लाल होता है।
४ सान्द्रप्रसाद मेह --सैंड्रा मेह एबं सद्रप्रसाद मेह के बीच कोई स्पष्ट विभेदक रेखा खींची नहीं गई है। इसे भी फास्फेट यूरिआ के नाम से पुकारा जाता है। आचार्य सुश्रुत ने इसे ' सुरा मेह ' कहा है। जिस प्रकार सूरा का ऊपरी भाग अत्यंत स्वच्छ और निचला भाग मटमैला होता है , यह ठीक उसी प्रकार का होता है।
५ शुक्ल मेह --इसे सुश्रुत एबं बागभट ने पिंड मेह अर्थात आते की आकृति का प्रमेह कहा है। मूत्र में शुक्लता अन्नरस के कारण मानी जाती है। इसे एल्बूमिन्युरिया कहते है। इसके १२ भेद माने जाते हैं। जैसे --१ एल्ब्युमिन मेह , २ आंगतुक एल्ब्युमिन मेह , ३ चक्रीय मेह ,४ अज्ञान - हेतुक मेह ५ कूट मेह ,६ ज्वरजनित मेह , ७ अधः स्थितिज मेह, ८ उर्धस्थितिज मेह , ९ शरीर क्रियात्मक मेह , १० परिश्रामोत्त मेह , ११ बृक्कज मेह , १२ यथार्थ मेह।
६ शुक्रमेह --- रोगमें मूत्र , शुक्र मिश्रित या शुक्राम होता है। इसे स्पर्मेटोरिया कहते हैं। यह रोग अधिकतर युवावस्था में होता है।
७ शीतमेह --इसमें मूत्र का स्वाद मदर एबं शीतल होता है। रोगी बारबार मूत्र त्याग करता है। मूत्र में शर्करा की मात्रा भी पायी जाती है। सुश्रुत इसे ,' फेन मेह' कहते हैं।
८ शनै मेह ---इसमें रोगी के मूत्रदाह स्रोतोमें रूकावट आ जाती है। अतः वह धीरे धीरे मूत्र त्याग करता है।
९ सिकता मेह ---इसमें रोगी के मूत्र में बालू के छोटे छोटे कण सामान कोई चीज आ जाती है।
१० लालामेह ---इसमें रोगी के मूत्र में लार दिखाई पड़ती है। सुश्रुत ने इसे ' लवण मेह ' की संज्ञा दी है।
पित्तज मेह ---पित्तज मेह छह प्रकार का माना जाता है। ये हैं --१ क्षार मेह २.काल मेह ,३ निल मेह ,४. मज्जिष्ठ मेह , ५ रक्त मेह , ६ हरिद्र मेह
१ क्षार मेह --रोगीके मूत्र का गंध , वर्ण , रास , स्पर्श में क्षार जैसा कोई तत्व नजर आता है। यह रोग तब होता है , जब मूत्र मूत्राशय में देर तक रुका रहता है। इसे एल्कलाइन यूरिया कहते हैं।
२ काल मेह ---सुश्रुतं ने काल मेह के स्थान पर अम्ल मेह की सत्ता को स्वीकार किया है। इसमें मूत्र का रंग काली स्याही के सामान होता है। इसे इंडीकेन्युरिया कहते हैं ; क्यों की इसमें इण्डोल की मात्रा बढ़ी हुई होती है।
३ निल मेह ---इसमें मूत्र का वर्ण नीला दिखाई देता है। यही स्थिति दो प्रकार से देखने को मिलती है। कभी तो पेशाब करते समय ही वह नीली दिखाई देती है या फिर पेशाब कर लेने के बाद उसका रंग नीला हो जाता है।
४ हरिद्र मेह ---इसमें मूत्र का वर्ण हल्दी के सामान होता है। यह रस में कटु होता है। मूत्र त्याग करते समय रोगी को जलन का अनुभव होता है। यह स्थिति रंजक पित्त की अधिकता के कारण होती है। इसे बिलीरुबिन्यूरिआ कहते है ; परन्तु जब उसमें हीमोग्लोविन की मात्रा अधिक हो जाती है , तो उसे हीमोग्लोबिनयूरिआ कहते है।
५ रक्तमेह ---इसमें रोगी दुर्गन्धित , लवणरसयुक्त तथा लाल रंग का मूत्र बिसर्जीत करता है। इसमें मूत्र रक्तयुक्त तथा रक्त कणों से मिश्रित होता है। इसे हिमीच्यूरिआ कहते हैं।
वातजमेह ---वातज मेह चार प्रकार के कहे गए हैं --१ मज्जमेह , २ ओजोमह ३ वासमेह , लसीकामेह। इन चार प्रकार के वातज प्रमेहों में वातदोष की प्रधानता होती है; हालाँकि इसमें कफ तथा पित्त की भी सत्ता रहती है। इन प्रमेहों को असाध्य कहां जाता है।
१ मज्जमेह ---दोष प्रकोप के कारण मज्जा आदि धातुएं घुल घुल कर मूत्र के साथ निकलने लगती है। यही स्थिति क्षय रोगी के साथ भी होती है।
२ ओजोमह ---इसे मदुमेह भी कहा जाता है ; क्योंकि इसमें ओजोस धातु का क्षरण होते रहता है। इसे डाइबिटीज मेलाइटस कहते हैं। प्रमेह की अंतिम अवस्था को ही मदुमेह कहते है,जिसमें मूत्र शहद के समान हो जाता है। इसमें शरीर की महत्वपूर्ण धातु ओजोस का ह्रास होने लगता है।
३ वासामेह ---इसमें रोगी के मूत्र में वसा अर्थात तेल के समान चिकनी चीज निकलती है। इसे लाइप्यूरिआ कहते हैं।
४ लसीका नेह --इस रोग में रोगी मदमस्त हाती के निरंतर किन्तु प्रवाह से रहित अर्थात बून्द बून्द करके लसीका मिश्रित मूत्र का त्याग करता है। इसमें मूत्राशय के मुख खुल जाता है।
ग्रीष्म ऋतु के अतिरिक्त अन्य ऋतुओं में सोना निषिद्ध है ;क्योंकि इससे कफ की बृद्धि होती है.
शारीरिक परिश्रम करने से कफ घटता है। इसके अलावा स्वप्नसुख , दही का अत्यधिक सेवन , दूध एवं
नए अन्न का अधिक सेवन , वर्षा का नया जल , गुड ,चीनी , मिस्ररी ,विविध प्रकार की मिठाइयां तथा कफकारक आहार विहार के कारण प्रमेह पैदा होता है।
प्रमेह का समाप्ति ---कुपित दोष ( कफ ,पित्त ,वात ) अपने -अपने प्रदूषक कारणों को पाकर वस्ति ( मूत्राशय ) में पहुंचकर मूत्र को दूषितकर अपने-अपने लक्षणों से युक्त विभिन्न प्रकार के प्रमेह को उत्पन्न कर देते है। सुश्रुत के अनुसार - प्रमेहकारक आहार -विहार का सेवन करने वालों के अपरिपक़्व (आम ) दशा में स्थित वाट, पित्त ,कफ ,मेद , वसा के साथ मिलकर मूत्र स्रोतों से निचे की और आकर मूत्राशय के मुख का सहारा लेकर जब वे दोष वहार निकलने लगते हैं , तब प्रमेह की उत्पति होती है।
कफज प्रमेह की उत्पति ---कफकारक आहार - विहार के सेवन करने से बढ़ा हुआ कफ दोष मेद ,मॉस तथा मूत्राशय में स्थित शरीर सम्बन्धी क्लेद (गीलापन ) को दूषित कर कफज प्रमेह का उत्पन्न करता है।
पित्तज प्रमेह की उत्पति ---उष्ण स्पर्श तथा बिर्ययुक्त पदार्थों का सेवन करने से बढ़ा हुआ पिट दोष मेह , मांस तथा शरीर संबंधी क्लेद एबं पिट को दूषित कर पित्तज प्रमेह की पैदा करता है।
बातज प्रमेह की उत्पति ---बढ़ा हुआ बात दोष धातुओं (वसा , मज्जा ,ओज ,लसीका ) को मूत्राशय में खींचकर बातज प्रमेह को उत्पन्न करता है।
प्रमेहों की सध्यासाध्यता ---समक्रिया होने से सामान्य कफजन्य दस प्रमेह साध्य या ठीक हो सकते है, विषम क्रिया वाले होनेके कारण पित्तज छह प्रमेह याप्य होते है। महत्यय निदान विनाशकारी होने के कारण वातज चार प्रमेह असाध्य होते है।
समक्रियतवान् ---इसका ताप्तर्य है - दोष कफ , दृश्य मेदस , मांस एबं शरीर का गीलापन। इन दोनों की चिकित्सा कटु - तिक्त रस प्रधान द्रव्य है , जो दोनों में सामान प्रभावकारी होते हैं। अतः इन्हे साध्य माना जाता है।
विषमक्रियत्वां ---एक ही प्रकार के औषोधी के उपचार से जहाँ दोष एबं दृष्यो का शमन हो जाए , उसे सम क्रिया कहते हैं और इसके ठीक विपरीत को विषम क्रिया कहते हैं। विषम क्रिया के अंतर्गत पित्तज प्रमेह के दोष एबं दूष्य आते हैं। पित्त की चिकित्सा में मधुर रास प्रधान द्रव्य होते हैं। इसकी चिकित्सा विशेष कुशलता के साथ की जनि चाहिए अन्यथा रोग और भी जटिल हो सकता है।
महत्ययत्वान (विनाशकारी )--वातज प्रमेह को असाध्य माना जाता है। इस प्रमेह में वात दोष रोगी की वसा , मज्जा , ओज , लसीका आदि धातुओं पर अपना प्रभाव डाल कर उनका ह्रास करता हुआ अनेक ओपद्रवीक लक्षणों को उत्पन्न कर देता है। इसी स्थिति को महत्यय ( विनाशकारी ) कहा गया है।
प्रमेह के भेद --प्रमेह रोग के दोष है -- वात , पित्त एबं कफ और इसके दूष्य हैं --मेद , रक्त , शुक्र , अम्बु (शरीर का जलीय भाग ), वसा , लसीका (मांस और त्वचा केबीच स्थित जलीयांश ) , मज्जा , रास , ओज एबं मांस। इन दोष --दृष्यों के परस्पर संयोग होने के कारण प्रमेह बीस प्रकार के माने जाते हैं ---
१.दस कफज प्रमेह
२.छह पित्तज प्रमेह
३. चार वातज प्रमेह
कफज प्रमेह ---इसके क्रमानुसार भेद है -
१ उदकमेह --आधुनिक एलोपैथी में इसे डाइबिटीज इन्सिपिड्स कहते है। इसकी उत्पति बृक्क्शोथ एबं रक्त चाप आदि के कारण मानी जाती है।
२ इक्षु मेह --इसे एलिमेंटरी ग्लाइकोसुरया कहते है। हलाकि इस रोग में मधुरता होती है।, परन्तु यह 'मधुमेह ' से एकदम भिन्न है।
३ सैंड्रा मेह --इसे फास्फेट यूरिआ कहते है। यह फाइब्रिनुरिआ के नाम भी जाना जाता है; क्योंकि इसके मूत्र में फाइब्रिन की मात्रा मिलती है। इसीलिए इसका रंग रक्त के सामान लाल होता है।
४ सान्द्रप्रसाद मेह --सैंड्रा मेह एबं सद्रप्रसाद मेह के बीच कोई स्पष्ट विभेदक रेखा खींची नहीं गई है। इसे भी फास्फेट यूरिआ के नाम से पुकारा जाता है। आचार्य सुश्रुत ने इसे ' सुरा मेह ' कहा है। जिस प्रकार सूरा का ऊपरी भाग अत्यंत स्वच्छ और निचला भाग मटमैला होता है , यह ठीक उसी प्रकार का होता है।
५ शुक्ल मेह --इसे सुश्रुत एबं बागभट ने पिंड मेह अर्थात आते की आकृति का प्रमेह कहा है। मूत्र में शुक्लता अन्नरस के कारण मानी जाती है। इसे एल्बूमिन्युरिया कहते है। इसके १२ भेद माने जाते हैं। जैसे --१ एल्ब्युमिन मेह , २ आंगतुक एल्ब्युमिन मेह , ३ चक्रीय मेह ,४ अज्ञान - हेतुक मेह ५ कूट मेह ,६ ज्वरजनित मेह , ७ अधः स्थितिज मेह, ८ उर्धस्थितिज मेह , ९ शरीर क्रियात्मक मेह , १० परिश्रामोत्त मेह , ११ बृक्कज मेह , १२ यथार्थ मेह।
६ शुक्रमेह --- रोगमें मूत्र , शुक्र मिश्रित या शुक्राम होता है। इसे स्पर्मेटोरिया कहते हैं। यह रोग अधिकतर युवावस्था में होता है।
७ शीतमेह --इसमें मूत्र का स्वाद मदर एबं शीतल होता है। रोगी बारबार मूत्र त्याग करता है। मूत्र में शर्करा की मात्रा भी पायी जाती है। सुश्रुत इसे ,' फेन मेह' कहते हैं।
८ शनै मेह ---इसमें रोगी के मूत्रदाह स्रोतोमें रूकावट आ जाती है। अतः वह धीरे धीरे मूत्र त्याग करता है।
९ सिकता मेह ---इसमें रोगी के मूत्र में बालू के छोटे छोटे कण सामान कोई चीज आ जाती है।
१० लालामेह ---इसमें रोगी के मूत्र में लार दिखाई पड़ती है। सुश्रुत ने इसे ' लवण मेह ' की संज्ञा दी है।
पित्तज मेह ---पित्तज मेह छह प्रकार का माना जाता है। ये हैं --१ क्षार मेह २.काल मेह ,३ निल मेह ,४. मज्जिष्ठ मेह , ५ रक्त मेह , ६ हरिद्र मेह
१ क्षार मेह --रोगीके मूत्र का गंध , वर्ण , रास , स्पर्श में क्षार जैसा कोई तत्व नजर आता है। यह रोग तब होता है , जब मूत्र मूत्राशय में देर तक रुका रहता है। इसे एल्कलाइन यूरिया कहते हैं।
२ काल मेह ---सुश्रुतं ने काल मेह के स्थान पर अम्ल मेह की सत्ता को स्वीकार किया है। इसमें मूत्र का रंग काली स्याही के सामान होता है। इसे इंडीकेन्युरिया कहते हैं ; क्यों की इसमें इण्डोल की मात्रा बढ़ी हुई होती है।
३ निल मेह ---इसमें मूत्र का वर्ण नीला दिखाई देता है। यही स्थिति दो प्रकार से देखने को मिलती है। कभी तो पेशाब करते समय ही वह नीली दिखाई देती है या फिर पेशाब कर लेने के बाद उसका रंग नीला हो जाता है।
४ हरिद्र मेह ---इसमें मूत्र का वर्ण हल्दी के सामान होता है। यह रस में कटु होता है। मूत्र त्याग करते समय रोगी को जलन का अनुभव होता है। यह स्थिति रंजक पित्त की अधिकता के कारण होती है। इसे बिलीरुबिन्यूरिआ कहते है ; परन्तु जब उसमें हीमोग्लोविन की मात्रा अधिक हो जाती है , तो उसे हीमोग्लोबिनयूरिआ कहते है।
५ रक्तमेह ---इसमें रोगी दुर्गन्धित , लवणरसयुक्त तथा लाल रंग का मूत्र बिसर्जीत करता है। इसमें मूत्र रक्तयुक्त तथा रक्त कणों से मिश्रित होता है। इसे हिमीच्यूरिआ कहते हैं।
वातजमेह ---वातज मेह चार प्रकार के कहे गए हैं --१ मज्जमेह , २ ओजोमह ३ वासमेह , लसीकामेह। इन चार प्रकार के वातज प्रमेहों में वातदोष की प्रधानता होती है; हालाँकि इसमें कफ तथा पित्त की भी सत्ता रहती है। इन प्रमेहों को असाध्य कहां जाता है।
१ मज्जमेह ---दोष प्रकोप के कारण मज्जा आदि धातुएं घुल घुल कर मूत्र के साथ निकलने लगती है। यही स्थिति क्षय रोगी के साथ भी होती है।
२ ओजोमह ---इसे मदुमेह भी कहा जाता है ; क्योंकि इसमें ओजोस धातु का क्षरण होते रहता है। इसे डाइबिटीज मेलाइटस कहते हैं। प्रमेह की अंतिम अवस्था को ही मदुमेह कहते है,जिसमें मूत्र शहद के समान हो जाता है। इसमें शरीर की महत्वपूर्ण धातु ओजोस का ह्रास होने लगता है।
३ वासामेह ---इसमें रोगी के मूत्र में वसा अर्थात तेल के समान चिकनी चीज निकलती है। इसे लाइप्यूरिआ कहते हैं।
४ लसीका नेह --इस रोग में रोगी मदमस्त हाती के निरंतर किन्तु प्रवाह से रहित अर्थात बून्द बून्द करके लसीका मिश्रित मूत्र का त्याग करता है। इसमें मूत्राशय के मुख खुल जाता है।
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