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मंगलवार, 12 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । आयुर्वेदिक चिकित्सा । हिक्का और श्वास रोग


हिक्का  और श्वास  रोग  पाण्डु  रोग के बाद  जन्म  लेते है ; ऐसा  हमारे  आयुर्वेद  के विद्वानों का  मत है।  पाण्डु रोग  चिकित्सा न होने पर  श्वास रोग  का  रूप ले  लेता  है।  हिक्का  रोग में  बार बार हिचकी  आता  है, इसीलिए इस रोग को हिक्का  कहते है। जिस रोग  से रोजमर्रा की  जीवन चर्या  में  कष्ट  हो एवं  वायु  मुश्किल से अंदर  बाहर  जा आ  पा  रही हो , उसे  श्वास  रोग कहा जाता  है। प्राणवायु  और  उदान  वायु  प्रकुपित होकर  जब  एक साथ  क्रियाशील  होते है , तब  श्वास  द्वारा  लिया  हुआ  वायु  बीच में  रूककर  मुख की और  बढ़ता  है  और सहसा  हिक  शब्द  की  उत्पत्ति  हो जाती है।

          हिक्का  और  श्वास  में  समानता  यह है की ये दोनों  रोग  कफ  और  बातजन्य  होते है।  चिकित्सा  नहीं  किये  जाने पर  ये  रोग  रस  रक्तादि  को  सुखा  देते है।  इनके  उत्पन्न  होने पर  रोगी  यदि  अनुचित  आहार बिहार  करता  है तो  जिस प्रकार  क्रोध में  आया  साँप  मृत्यु  का  कारण  बनता है , उसी प्रकार ये रोग  भी  मृत्यु का  कारण  बन जाते  हैं।
                                          कारण एवं निदान 


धूल  एवं  धुआँ  आदि  के  श्वास  मार्ग  में  प्रविष्ट  हो जाने से , शीत  स्थान  या  शीतल  जल  के  अत्यधिक  सेवन  से , अधिक व्यायाम , अधिक  कामसेवन , अधिक रास्ता  चलने से , रुखा  अन्नसेवन से , विषम  भोजन से, आमदोष  के बढ़ जाने से , शरीर के अत्यधिक  रुक्ष  हो जाने पर , अधिक दुर्वलता  से , वामन-विरेचन  के अतियोग  से, अतिसार , ज्वर , धातुक्षय , रक्तपित्त (एलर्जी ), पाण्डु  रोग  एवं  विष सेवन  से हिक्का  और श्वास  रोग  जन्म  लेते  हैं।  इसके  अलवा  तिल तेल  का  अधिक सेवन , चावल  का आटा , गुरु आहार , कच्चा  दूध  अधिक मात्रा  में , कफकारक  आहार  का  सेवन एवं  कंठ  तथा  छाती  पर आघात  भी  हिक्का  श्वास  के कारण  होता  है।  इन्ही का  एक रूप  कास  है।  कास  वातज , पित्तज , तीनो भेद से होता  है , जबकि  हिक्का -श्वास  मात्र  वात - कफात्मक  होते हैं।

     ऊपर दिए  गए  कारणो  के परिणाम  स्वरूप  वायु  प्रणवाही  स्रोत में  अंदर प्रवेश  कर कुपित हो जाती है।  यह  अंदर  के  कफ को  उभार कर  प्राणवायु  की रूकावट  का  कारण  वनती है। कंठ  क्षेत्र  और छाती  में  भारीपन , पेट में  गड़गड़ाहट  हिक्का  रोग के  पहले  प्रकट  होते हैं।  जबकि  पेट , पसली , ह्रदय  क्षेत्र  में  पीड़ा एवं  प्राणवायु  का मूढ़  हो जाना  श्वास  रोग के  पूर्वचिन्ह  है।  हिक्का  रोग में  कफ  एवं  वायु  कुपित  होकर  प्राण  उदर  सभी क्षेत्रों में रूकावट  पैदा  कर  हिक्का  रोग को जन्म देते हैं।

   हिक्का  रोग में महहिक्का , गम्भीरा , व्यपेता , क्षुद्र  एवं  अन्नजा  ऐसे  पांच  प्रकार  का  वर्णन  आता है।  महहिक्का  एक  ऐसी  स्थिति है , जिसमें  किसी  रोगी का  अन्य  किन्ही कारणों  से  तेज  क्षीण  हो गया हो  और  उनका  कफ  कुपित होकर  कंठ क्षेत्र  को आक्रांत  कर अति  प्रबल  ऊँचे  शब्दों  की उत्पन्न  करनेवाली  हिक्का  निरंतर पैदा  करता  है।  कभी  एक, कभी दो  बार  भी  एवं तीन  बार  वेग  के साथ  यह  निरंतर  निकलती  है।  ह्रदय , जठराग्नि  को  प्रभावित  कर  यह शरीर में  जकड़ाहट  भी  पैदा  कर देती  है  तथा रोगी को  स्मरण शक्ति  को  नष्ट  कर देती है।  यह व्यक्ति  बोल भी नहीं पाता।  यह हिक्का  रोग  महाशूल , महाशब्द , महाबल  वाला  होता है  और प्राण  हरने  वाला  होता है।  अतः  इसे महहिक्का  कहा गया है , ऐसा  चरक का  मत  है।

 गंभीर  हिक्का  वहां  होती है , जहाँ रोगी के शरीर में  कफ  और  वायु  अधिक मात्र में बढ़ गयी हो।  यह पक्वाशय - नाभिस्थान  में  निकलती है , जो  पित्त का  मूल  स्थान  है।  जकड़ाहट और  मर्मांतिक  वेदना  से  पीड़ित  ऐसे  व्यक्ति  की  हिक्का  नाभि क्षेत्र से  निकलती है।  नाभि से  प्रबृत  होने के कारण  इस हिक्का  में  गंभीर  आवाज होती है।  निकलते समय  यह  अत्यधिक  कष्ट  होती है  और  देह को  टेढ़ा  कर  देती है, श्वास  प्रश्वास  के मार्ग को रोक देता है , आँखों  के सामने  अंधकार  छा  जाता  है , रोगी  का ज्ञान और बल. दोनों  मनो नष्ट हो  जाते  हैं।  रोगी को ऐसा  लगता  है , मनो उसके  फेफड़े  फैट गए है।

 व्यपेता  हिक्का  आहार के  परिणाम  स्वरूप  होती है।  यह अशित , खदित,पिट, लिढ  अन्न  के सेवन  से होता है।  जब  यह  अन्न  पांच जाता  है  तो  हिक्का  का  वेग  बढ़  जाता है।  उस  समय  प्रलाप , वमन , अतिसार , प्यास  का अधिकता  जैसे  लक्षण होते है।  व्यक्ति  ज्ञान शुन्य  हो जाता है।  वेग लगातार न होकर रुक रुक कर होता है।

क्षुद्र हिक्का  व्यायाम के द्वारा कुपित  क्षुद्र  वात  के कारण  होती है , जब  उदारक्षेत्र  से कंठक्षेत्र  में  वात  चला  जाता है।  यह अधिक  दुखदाई  नहीं  होती है।  यह भोजन  करते ही  शांत  हो जाती है।  

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

स्वस्थशरीर । घरेलु चिकित्सा । एसिडिटी


सिडिटी  रोग को  एसिड डिस्पेप्सिआ , एसिड  गैस्ट्राइटिस  और हाइपर क्लोरोहाइड्रिया  के नाम  से  भी जाना  जाता  है। इस  रोग  का  इतिहास  बहत पुराना  है।  लगातार  बासी  व  तामसिक  भोजन  खाने  से शरीर  मे बहत ज्यादा  अम्ल  तथा  पित्त का  निर्माण  होता है।  इसी को  अम्ल पित्त  कहते है।  बदलती  ऋतुओं  से इस रोग का सीधा  सम्बन्ध  है।  शरद  ऋतु  और वर्षा  ऋतु में  यह रोग  ज्यादा  पैर  पसारता  है।  इस रोग में  रोगी के  आमाशय  में  अम्ल  और  पित्त  का  निर्माण  बहुत  ज्यादा  होने लगता  है। तब  गैस्ट्रिकम्यूकोसा  में  उत्तेजना  पैदा  होती  है , जिससे  हाइपर  एसिडिटी  का शरीर  में  निर्माण होता  है। कई  बार  रोग  की  अवस्था  में  उचित  उपचार  न  कराने  की  वजह  से  रोगी  गैस्ट्रिक  और  ड्यूडिनल  अलसर  का  शिकार  बन  जाया  करता  है।  रोग  की  गंभीर  अवस्था  में  रोगी  को  कैंसर  भी  हो  सकता  है।

                                               लक्षण 


  • अम्लपित्त  रोगी  को  थकान  रहने  लगती  है। 
  • रोगी  को  पेट  में  भारीपन  का  एहसास  होता  रहता  है।   
  • रोगी  को  उबकाई  आती  हैं।  उसकी  उबकाई  में  पीला,  नीला,  हरा,  या  लाल  रंग  का  पित्त  निकलता  है। 
  • रोगी  को  भोजन  से  अरुचि  सी  हो  जाया  करती  है। उसे  डकार  आती  रहती  है। 
  • रोगी  के  पेट,  छाती  और  गले  में  जलन  रहने  लगती  है।
  • रोगी  के  मुहँ   का  स्वाद  कसैला  व  कड़वा  रहने  लगता  है। 
  • रोगी  के  मुहँ  में  अम्लपित्त  की  वजह  से  छाले  हो  जाया  करते  हैं। 
  • रोगी  के  दांत  भी  खट्टे  रहने  लगते  हैं। 
  • भूखा  पेट  रहने  पर  रोगी  को  जलन  का  एहसास  होता  है  और  भोजन  कर  लेने  के  पश्चात  जलन  में  कुछ  वक्त  के  लिए  आराम  सा  पड़  जाया  करता  है। 
  •  रोगी  को  सही  नींद  नहीं  आती  है,  जिससे  वह  हर  वक्त  टेंशन  में  रहने  लगता  है।
  • रोगी  की  जीभ  पर  मैला  पदार्थ  जम  जाया  करता  है। 
  • रोगी  को  गैस  की  प्रॉब्लम  रहने  लगती  है।  जिससे  उसे  अफारा,  पेट  दर्द  और  पेट  फूलने  की  समस्या  का  सामना  करना  पड़ता  है।  
  • रोगी  के  हाथ  पैरों,  आँखों  व  तलवों  में  जलन   रहने लगती  है। 
  • रोगी  को  मलमूत्र  त्यागते  वक्त  भी  जलन  की  अनुभूति  होती  है। 
  • इस  रोग  के  रोगी  को  बार-बार  थूकने  की  आदत  बन  जाया  करती  है।
  • रोगी  की  नाक  से  गर्म-गर्म  सांसें  निकलती  हैं  और  उनका  गुदा  मार्ग  से  भी  तीखी  खट्टी  और  दुर्गन्धयुक्त  गैसों  का  विसर्जन  होता  रहता  है।

                                                   कारण  


  • गलत  खानपान  से  भी  यह  रोग  शरीर  में  पनपता  है। 
  • शराब,  धूम्रपान  व  तम्बाकू  के  ज्यादा  सेवन  से  यह  रोग  होता  है। 
  • तले,  भुने  व  ज्यादा  चटपटे  खाद्य  पदार्थों  के  सेवन  से  भी  यह  रोग  शरीर  में  अपनी  पैठ  बनाने  में  सफल  होता  है। 
  • ब्रेड,  जैम,  जैली,  फ़ास्ट  फ़ूड,  कोल्ड  ड्रिंक्स  आदि  के  सेवन  से  भी  यह  रोग  होता  है। 
  • चाय ,कॉफी , बिस्कुट व  ज्यादा  चीनी के  प्रयोग से भी  यह  रोग उत्पन्न  होता है। 
  • चिंता व  मानसिक  तनाव  भी  इस रोग को  शरीर में  पैदा  करते हैं। 
  • खट्टे खाद्य  पदार्थों , सिरका , खट्टी दही ,खट्टी छाछ  के सेवन से भी  शरीर में  अम्ल पित्त  रोग  पैदा  होता है। 
  • ज्यादा  मात्रा  में  बेसन  व  मैदा  से  बने  खाद्य  पदारथों  के सेवन  से  भी अम्ल पित्त  हो जाया  करता है। 
  • कम  मात्रा  में  पानी  पिने से  और ज्यादा  उपवास  ब्रत  रखने से  भी व्यक्ति इस रोग का शिकार होता है। 
  • चॉकलेट , कुल्फी , डिब्बा  बंद  खाद्य पदार्थ , क्रीम , आइसक्रीम , टॉफियाँ  रोज  ज्यादा  मात्रा  में  खाने से भी  अम्ल पित्त  रोग  होता  है। 
  • पालिश  किया चावल  खाने से  भी  यह रोग  हो जाया  करता है। 
  • बिना चोकर  के  बारीक़ पिसे आटे  की  रोटीआं  खाने से भी  यह रोग सामने आते है। 
  • आजकल लोग  एलोपैथिक  दवाओं  और  एंटीबायोटिक  दवाओं  का खूब  सेवन  करते है।  इस तरह  की दवाओं  के ज्यादा  सेवन  से  भोज नलिका  और आमाशय  पर  बिपरीत प्रभाव  पड़ता है , जिससे  व्यक्ति  की  आँतों  में  सूजन  आ  जाती है , घाव  हो जाता  है  और शरीर में  अम्ल  ज्यादा  बनने  लगता  है। 
  • जल्दी बिना चलाये  भोजन करने से भी  शरीर में अम्ल पित्त  रोग पैदा होते है। 
  • महिलाओं  में  गर्भावस्ता  के दौरान  यह रोग दिखाई देता  है। 
  • अजीर्ण , पुरानी  पेचिश , कब्ज , मंदाग्नि , संग्रहणी , आमाशय  में  सूजन , आंतों में  सूजन होने की बजह से  भी  अम्ल पित्त  रोग  सत्ता सकता है। 
  • दांतों के रोग , आंतों के रोग , पायरिया , लिवर की खराबी , तिल्ली  की  खराबी  भी  इस रोग को पैदा करती है। 
  • दूषित  पानी पिने से भी  यह रोग  फैलता है। 
  • ठन्डे गरम  खाद्य  पदार्थों  का  एक-दूसरे  के ऊपर  सेवन  कर  लेने से  भी  अम्लपित्त  रोग हो जाता है।


                                   जड़ी -बूटियों  से रोग  निवारण 
          
  • त्रिफला  या  आमले  के चूर्ण में  थोड़ा सा शहद  मिलाकर  चाटना  चाहिए। 
  • हरड़ के  चूर्ण  में  थोड़ा सा  शहद  मिलाकर  चाटना चाहिए। 
  • अम्लपित्त रोग होनेपर  रोगी के शरीर में  कई तरह की विकार  पैदा हो जाया करते  है।  इन विकारों  से छुटकारा  पाने  के लिए  काली मिर्च , सोंठ  और  नीम की  छाल  को मिलकर  बारीक़  पीसकर  चूर्ण  बना ले।  इस चूर्ण  को  सुबह  शाम  एक  चम्मच  की  मात्रा  में  ताजे  पानी  से  लेने से  फ़ायदा  होता है। 
  • पीपल , सुखा  आंवला , छोटी  हरड़ , धनिया , कुटकी  का  समभाग  मात्रा  में  लेकर  पीस ले। इसमें  इनके  बराबर  की  मात्रा  में  मुनक्का दाख  भी  मिला ले।  रात्रि के  समय  लगभग  १५  ग्राम  के  मात्रा  में  इस  मिश्रण  को  लेकर  एक  मिटटी  के  सकौरे  में  पानी  में  भरकर  उसमें  मिला  दें।  सुबह  इस  मसलन  को  छानकर  पी  लें।  २-३  महीनें  तक  लगातार  यह  क्रिया  करते  रहने  से  अम्लपित्त  रोग  दूर  हो  जाता  है। 
  • अगर  इस  रोग  की  वजह  से  पेट  में  दर्द  की  अनुभूति  होती  हो  तो  पीपल  के  वृक्ष  की  छाल  का  काढ़ा  बनाकर  पीने  से  पेट  दर्द  में  आराम  मिलता  है।  काढ़े  में  गुड  और  सेंधा  नमक  डालना  न  भूलें। 
  • ताज़ा  आंवले  के  गुदे  में  बारीक  पिसी  हुई  मिश्री  मिलाकर  रखनी  चाहिए। 
  • मुनक्का  १०  ग्राम  और  सौंफ  आदि  मात्रा  में  लेकर  दोनों  को  १००  मिली.  पानी  में  भिगो  दें।  सुबह  मसलकर - छानकर  पीने  से  अम्लपित्त  में  लाभ  होता  है। 
  • दाख,  हरड़  बराबर-बराबर  लें। इसमें  दोनों  में  बराबर  शक्कर  मिला  लें।  सबको  पीसकर  १-१  ग्राम  की  गोली  बनाकर  लेने  से  अम्लपित्त,  हृदय  कंठ  की  प्यास,  मंदाग्नि  का  शमन  होता  है। 
  • पकी  निबौली  के  ३-४  दाने  खाने  से  मंदाग्नि  में  फायदा  होता  है। 
  • धनिया,  सौंठ,  शक्कर  और  नीम  की  सींक  ६-६  ग्राम  की  मात्रा  में  लें।  इसका  क्वाथ  बनाकर  सुबह  शाम  पीने  से  पित्त  की  जलन,  खट्टी  डकारें,  अपचन,  ज्यादा  प्यास  मिटती   है। पित्त  स्वर  में  भी  इसका  सेवन  लाभ  पहुँचाता  है।
  • त्रिफला  चूर्ण  आधा  चम्मच  की  मात्रा  में  दिन  में  २-३  बार  पानी  के  साथ  फांकने  से  एसिडिटी   में  लाभ   होता है। 

                                           घरेलु  चिकित्सा 


  • ककड़ी  या  खीरे  को  बिना  नमक  के  साथ   खाने  से   अम्लपित्त  रोगी  ठीक  होता  है।  ककड़ी  या  खीरा   खाने  के  बाद  पानी  नहीं  पीना  चाहिए। 
  • अगर  वायु  विकार  की  समस्या  हो  और  खट्टी   डकारें  आ  रही  हों,  तो  २  आलू  बालू   में  भून  लें।  इसमें  जीरा,  काली  मिर्च,  थोड़ा  सा  सेंधा  नमक   मिला लें।  अब   इसमें  थोड़ा  सा  नींबू  का  रस  मिलाकर   इसका  सेवन  करें। 
  • गाय    के  दूध  में  गुड मिलाकर  पीने   से  खूब  खुलकर  पेशाब  आयेगा,  जिससे  अम्लता   मिटने  के साथ-साथ  गर्मी  व   जलन  भी  मिट  जायेगी। 
  • आधा  चम्मच  नींबू  के  रस  की  बूंदें  मिला  लें।  इसे  दिन  में  ३- ४  बार  चाटने  से  अम्लपित्त  में फायदा  होता  है। 
  • गुड  के  साथ  जीरे  का  चूर्ण  लेना  चाहिए। 
  • धनिया  और  अदरक  को  बराबर  की  मात्रा  में  लेकर  पानी  के  साथ  सेवन  करने  से  रोग  में  फायदा  होता  है।  
  • एसिडिटी  की  समस्या  हो  तो  नारियल  का  पानी  पीना  चाहिए। 
  • काली  मिर्च  की  चटनी  के  साथ  काले  चनों  को  खाना  चाहिए। 
  • प्याज़  के  रस  में  नींबू  का  रस  मिला  लें।  इसके  सेवन  से  पेशाब  की  जलन  मिटती  है। 
  • एक  चम्मच  जामुन  के  रस  में  थोड़ा  सा  गुड  मिलाकर  उसका  सेवन  करना  चााहिए। 
  • आंवले  के  चूर्ण  को  छाछ  या  दही  के  साथ  सेवन  करना  चाहिए। 
              
                                                  आहार

  • बासी  भोजन  नहीं  करना  चाहिए।  
  • सुबह  शाम  टहलने  की  आदत  अवश्य  डालें। 
  • रोगी  को  गेहूँ  व  जौ  के  चोकर  युक्त  मोटे  आटे  की  रोटियां  खानी  चाहिए।  भुना  अनाज  व  अंकुरित  अनाज  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • सब्जियों  में  रोगी  को  तोरई,  टिण्डा,  पालक,  मेथी,  परवल, मूली,  पेठा,  नैनवा,  पत्ता  गोभी,  करेला,  कद्दू,  हरी  सब्जियों  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • फलों  में  रोगी  को  मीठा  बेदाना  अनार,  आंवला,  अमरूद,  पपीता,  केला,  मीठा,  आम,  अंजीर,  सेव,  लीची  व  खिरणीफल  आदि  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • रोगी  को  बेल  का  जूस,  अंगूर  का  जूस,  लौकी  का  जूस,  गाजर  का  जूस  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • रोगी  को  आंवले  का  मुरब्बा  व  बहेड़े  का  मुरब्बा  खाना  चाहिए। 
  • अंकुरित  मूंग, चना,  मक्का  व  गेहूँ  का  सेवन  रोगी  को  करना  चाहिए। 
  • गर्मियों  में  रोगी  को  भुने  हुए  जौ  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • पानी  व  तरल  पदार्थ  बार-बार  पीना  चाहिए।
  • हमेशा  हल्का  व  सुपाच्य  भोजन  करना  चाहिए। 
  • मिश्री  या  खांड  मिलाकर  जौ  व  चने  के  सत्तू  का  सेवन  करना  चाहिए। 
  • भोजन  को  शांत  चित्त  होकर  करें  व  समय-समय  पर  भोजन  को  चबा-चबा  कर  ग्रहण  करने  की  आदत  डालें।   
  • हफ्ते  में  एक  बार  उपवास  अवश्य  रखें। 
  • मौसमी  फलों  का  सेवन  करें।  सलाद  को  अपने  भोजन  में  अवश्य  शामिल  करें। 
  • दूध  को  हमेशा  उबालकर  व  ठंडा  करके  पीने  की  आदत  डालें। 
  • गर्मियों  में  बादाम, पिस्ता,  सौंफ,  काली  मिर्च  की  ठंडाई  फ़ायदा  पहुँचाती  है। 
  • समय-समय  पर  उठना,  समय  पर  सोना  व  समय  पर  भोजन  करना  अम्लपित्त  रोग  को  पनपने  नहीं  देता  है। 
  • कफ  पित्त  नाशक  खाद्य  पदार्थ  व  उबला  हुआ  पानी  इस  रोग  में  फायदा  पहुँचाते  हैं।
                                                   परहेज़ 

  • आलू,  टमाटर,  फूलगोभी,  बैगन  आदि  सब्जियों  का  सेवन  न  करें। 
  • मैदा  और  बेसन  बने  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें। 
  • गरिष्ठ  व  टेल  भुने  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें। 
  • कभी  भी  मन  में  क्रोध,  चिंता,  द्वेष,  ईर्ष्या  आदि  भावों  को  लाकर  भोजन  न  करें।  इस  अवस्था  में  भोजन  का  पाचन  सही  प्रकार  से  नहीं  हो  पाता  है।  जिससे  पेट  में  भोजन  अम्लता  पैदा  करता  है। 
  • चाट,  पकौड़ी  आदि  चटपटे  व्यंजनों  को  न  खाएं। 
  • अनार,  चटनी,  डिब्बा  बंद  खाद्य  पदार्थों  का  सेवन  न  करें,  गर्म  भोजन  न  करें,  खट्टी  दही  व  छाछ  का  सेवन  न  करें,  चाय  कॉफ़ी  से  दूर  रहें,  सोयाबीन,  उड़द,  अरहर,  कुलथी,  काबुली  चना,  राजमा,  तेल  आदि  का  सेवन  न  करें। 
  • रात्रि  में  भोजन  देरी  से  न  करें। 
  • कब्ज  से  पीछा  छुड़ाने  के  लिए  कभी  भी  ज्यादा  दस्तावर  चूर्ण  का  प्रयोग  न  करें।    




                                                                                           

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर । घरेलु चिकित्सा । कुष्ठ रोग


कुष्ठ  रोग से  त्रिदोष  वात , पित्त  एवं  कफ  की प्रधानता  के आधार  पर  इनको  वर्गीकृत  किया  जाता है।



                                   कुष्ठ रोग  की कारण


वात  दोष की  अधिकता  होने पर  कपाल  कुष्ठ , कफदोष  की  अधिकता  से  मंडल कुष्ठ , पित्तदोष के भड़कने से उदुम्बर  कुष्ठ , तीनो  दोषों  के  प्रभाव से  ककणक  कुष्ठ, वात  पित्तादि  दोष से  ऋक्षजिह्व  कुष्ठ , कफपित्त  दोष से पुण्डरी  कुष्ठ , वात  कफ दोष की अधिकता  होने पर  सिध्म  कुष्ठ होता है।  इन्हे ही सात  महाकुष्ठ  कहते है। 

दोषों की प्रधानता  से ग्यारह  क्षुद्र  कुष्ठ  इस प्रकार है -- वात  कफ  दोष की अधिकता होने पर  चमाक्ष्य  कुष्ठ , एक कुष्ठ , कृतिम  कुष्ठ , विपदिका , अलसक  कुष्ठ  होते है।  पित्त - कफ  दोष  की प्रधानता  से  पामा , शतारु , विस्फोटक , दद्दू ,  चर्मदल  कुष्ठ  होते है।  और  कफ  दोष की अदिकता होने पर  विचर्चिका  नामक कुष्ठ होने का  संदेह  प्रकट  किया जाता  है।  सभी कुष्ठ त्रिदोषज  होते है।  इसीलिए  वातादि  दोष  के  को  भली  भांति  जानकर उन - उन  दोषों  के लक्षण  को समझ  कर  ही चिकित्सा  करनी  चाहिए।  चिकित्सा  क्रम में  यह  स्पष्ट  किया जाता  है  की  बिभिन्न  प्रकार  के  कुष्ठ  में  जिस दोष  के लक्षण  विशेष  रूप  से  उभरे  हुए हो , सर्वप्रथम  उसी  दोष को  शांत  करने  का  प्रयत्न  करना  चाहिए  तथा  इसके  पश्चात  अप्रधान  दोषों को  चिकित्सा करनी  चाहिए।
                                    कुष्ठ रोगों की लक्षण 

वात  दोष के  लक्ष्ण  है --रूखापन , शोष ( अंग  सुख  जाना ) , तोड़  ( सुई  चुभाने  जैसी  पीड़ा ) , शूल , त्वचा में  संकोच  होना , तनाव  का  होना , खुदरापन , रोमांच , त्वचा  का वर्ण  श्याम  अथवा  हल्का  लाल  होना। कुष्ठ  में  पित्तदोष  के लक्ष्यण  है --दाह (जलन ), लालिमा , चारों  और  से स्राव होना , पक  जाना , आमगन्ध  की  उत्पत्ति , क्लेद , अंगपतन।  कफ  दोष  के लक्ष्ण -- कुष्ठ  से आक्रांत  स्थान  में  सफेदी  होना , शीत  होना, खुजली , स्थिरता , व्रण  का उभारयुक्त  होना , भरीपन , चिकनापन , कृमियों  का  उस स्थान  का भक्षण  कर जाना  तथा  गीलापन  का बना  रहना आदि।

                                          कुष्ठ  की  स्थिति

कुष्ठ की तीन  स्थितियां  कही गयी है --असाध्य , सध्य, कृछ  साध्य।

असाध्य --तीनो दोषों  के  सभी  लक्षणों  से युक्त  कुष्ठ रोगी यदि  निर्बल हो , प्यास , जलन से युक्त , जिसकी  पाचकाग्नि  शांत  हो  गयी  हो  और  जिसके  कुष्ठ से  आक्रांत  शारीरिक  अवयवो  को  कुष्ठ  कृमियों  ने  भक्षण  कर लिया  हो, ऐसे कुष्ठ को असाध्य  मान कर  उनकी  चिकित्सा  छोड़ दी जाती है।

साध्य -- जिस कुष्ठ  रोग में  वात  तथा  कफ दोष  की प्रवलता  हो , तो उसकी  चिकित्सा  की जा सकती है।

कृच्छ सध्य--जिन कुष्ठ में  कफ -पित्त  या  वात -पित्त  दोषों  की प्रवलता  देखि जाती है , उन्हें  कृच्छ  सध्य कहा  जाता है।

                                        कुष्ठ का चिकित्सा

कुष्ठ में  दोषों के आधार  पर  चिकित्सा  क्रम निश्चित  किया  जाता है।  वातप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सर्वप्रथम  घृत  पान  कराना चाहिए।  घृतपान  वातनाशक  होता है , इसीलिए  इसका  प्रभाव  पड़ता  है।  कफदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  सबसे  पहले  वमन  कराया  जाता है।  वमन  कफ नाशक  होता है।  पित्तदोषप्रधान  कुष्ठ रोगों में  रक्तमोक्षण  तथा विरेचन  से पित्तशमन  होता है।

                                  कुष्ठ में  संशोधन  प्रक्रिया

संशोधन  का अर्थ  है  वमन  तथा विरेचन।  कल्पस्थान में  वर्णित वमन  तथा  विरेचन प्रयोग  करने का विधान है।  क्षुद्र  कुष्ठों  में  तथा अल्प दोष वाले कुष्ठों  में  प्रच्छन्न  कर्म  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना चाहिए।  महाकुष्ठों  में  शिरोवेध  द्वारा  रक्तमोक्षण  कराना  चाहिए।  प्रछन्न  कर्म में  जहाँ  से रक्त निकालना  हो , उस स्थान  को काटकर सिंगी या  तुम्बी से  रक्त निकालना  चाहिए।

 वमन , विरेचन  रोगी को  शारीरिक बल को देखकर  ही कराया जाता है।  इससे  दोषों  का निर्हरण  होने के साथ -साथ  शरीर में  कमजोरी  आ जाती  है, क्योंकि  वातादि  दोषों  को स्वस्थ स्थिति   में  देह में धारण  करने के कारण  धातुभी  भी कहा जाता है और  इनको कुछ  मात्रा  में  निकाला भी जाता है  और कुछ मात्रा  में  सुरक्षा  भी  की जाती है।  अतः  एक ही बार  में बहुत वमन , विरेचन न कराकर  थोड़ा - थोड़ा  अनेक बार  में कराना  चाहिए।

                                    कुष्ठ रोग में  स्नेह्पान

संशोधन  कराने  के बाद  कोष्ठ के शुद्ध  हो जाने पर  एवं  रक्तमोक्षण  कर लेने  के बाद  रोगी को  स्नेह्पान  कराना  आवश्यक  होता है , क्योंकी  संशोधन  कर लेने  से दुर्बल  कुष्ठ रोगी  के शुद्ध  में शीघ्र ही वायु  प्रवेश  हो जाता है।  स्निग्ध  द्रव्यों  के सेवन  से वायु  का शमन हो जाता  है एवं  शरीर की रुक्षता  दूर होती है।  अतः  यहाँ  स्नेहपन कराने  का विधान  निश्चित  किया गया है।

                                 कुष्ठ रोग में वामक  द्रव्य

शरीर के ऊपरी  भागो में होने वाले  कुष्ठों  में  जब ह्रदय में  वातादि  दोषों का  उठवलेस   हो जाता है तो कुटज , मदनफल, मुलेठी  तथा  परिरा की पत्ती  के शीतरस   में  नीम  की पत्ती  का रस  मिलाकर  वमन  कराने के लिए पिलाएं।  शीतरस , पक्वरस  सभी  प्रकार  के मधु  और  मुलेठी  आदि  द्रव्य  वमनकारक  होते है।  

स्वतःशरीर । अौषधीय गुण । घरेलु चिकित्सा । नारियल


ना
रियल  मानव  समाज  में  महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाता  है।  स्वागत - सम्मान  एवं  देवपूजन  में  कलस  के ऊपर शोभायमान  रहता है। इसे  मंगलकारी  माना गया  है। नारियल  का  बृक्ष  खजूर  की तरह  काफी  ऊँचे  होते हैं।  इसके  पत्ते  भी खजूर  के पत्ते के सामान  ही दिखाई  देते  है।

                                        अौषधीय  गुण


आयुर्वेद के मतानुसार  पौस्टिक , बस्तिशोधक , वीर्यबर्धक ,शीतल ,बलकारक , स्वादिष्ट  होता है।  वाट-पित्त , दाह -पित्त , तृषा , खून  के दोष  और  क्षय  रोग  के धावों  को नष्ट करता  है।  कफ  कारक , पचने  में  भारी होता है तथा  नारियल  का  पानी  जोर  एवं  मूत्र  सम्बन्धी  विकारों  में  बेहद  लाभदायक  है।  नारियल  का  पानी  अधिक  मात्र  में  पीने  पर   भी  हानि  नहीं  करता।  यह  रक्त  की  भी  शुद्धि  करता  है।  यकृत  सम्बन्धी  रोगों  में  लाभदायक,  कृमिनाशक,  मूत्रल  होता  है।  नारियल  का  तेल- पौष्टिक,  वात -पित्तनाशक  तथा  मूत्र  सम्बन्धी  विकारों  को  नष्ट  करता  है।  स्मरणशक्ति  बढ़ाता  है।  बालों  को  बढ़ानेवाला  तथा  घाव  भरने  वाला  होता  है।  कमर  दर्द, गीली  खुजली  और  सूजन  को  नष्ट  करता  है।  
                            मोटापा  के  रोगी  को  नारियल  का  तेल  सेवन  कराने  से  शरीर  के  अंदर  की  चर्बी  कम   हो  जाती  है।  वसा, प्रोटीन  के  अतिरिक्त  नारियल  की  गिरी  में  कैल्शियम,  मैग्नीशियम,  ताम्बा,  गंधक,  लोहा,  पोटैशियम  तथा  विटामिन- बी  काम्प्लेक्स  भी  होता  है।  कई  तरह  की  नारियल  की  मिठाईयां  भी  बनती  है।  जो  पौष्टिक  एवं  लाभदायक  होती  है।  गर्भवती  महिला  नित्य  नारियल  का  सेवन  करे  तो  संतान  स्वस्थ  एवं  सुन्दर  होती  है।  

                                         घरेलु  चिकित्सा 

शीतला  में-- दूध  पिने  वाले  बच्चों  की  माँ  को  नारियल  की  गिरी  १  सप्ताह  तक  सेवन  कराने   से  बच्चे  को  शीतला  के  प्रकोप  के  दिनों  में  बचाव होता  है।  

गर्भाशय  की  पीड़ा  में -- प्रशव  के  पश्चात  गर्भाशय  में  पीड़ा  होती  हो  तो  नारियल  गिरी  खिलाने  से  लाभ  होता  है। 

हैजा  की  उलटी  में-- हैजा  की  उलटी  में  किसी  औषधि  से  उलटी  बंद  नहीं  होती  हो  तो  नारियल  का  पानी  पिलाने  से  शीघ्र  लाभ  होता  है।  उलटी  होना  बंद  हो  जाता  है।  शरीर  में  खनिज  लवणों  एवं  जल  की  पूर्ति  हो  जाती  है। 

हिचकी  में-- नारियल  फल  की  जटा  की  भस्म  ५  ग्राम  लेकर  १  गिलास  पानी  में  घोलकर  उस  पानी  को  निथारकर  पिलाने  से  हिचकी  बंद  हो  जाती  है।

त्वचा  के  जलन  पर-- नारियल  के  दूध  को  नारियल  तेल  में  मिलाकर  औटाकर  उसे  ठंडा  कर  लें।  जलीहुई  त्वचा  पर  इसे  लगाने  से  घाव  जल्दी  भरता  है।  नई   त्वचा  का  निर्माण  शीघ्रता  से  होता  है।  

फेफड़े  के  क्षय  रोग  में-- ताज़े  नारियल  को  पानी में पीसकर उसका दूध बनाकर नियमित पिलाने से कफ क्षय रोगी  को लाभ मिलता है। 

मलेरिआ  में --नारियल का पानी  २०० मी. ली.  दिन में  ३-४  बार  पिलाना चाहिए। 

मूत्र विकार  एवं  पथरी में --मूत्र  सम्बन्धी  विकार , जलन  , पेशाव  का पीलापन , एवं  मूत्राशय  की पथरी सम्बन्धी रोगों  में  नारियल  का  पानी  प्रतिदिन  २-३  बार  नियमित  पिने  से  लाभ  होता  है।  मूत्र  में  जालान  हो  तो  धनिया  के  बीजों  को  पीसकर  मिलालेने   से  शीघ्र  लाभ  होता  है।  

उच्च  रक्तचाप  में-- उच्च  रक्तचाप  को  नियंत्रित  करने  के  लिए  नारियल   का पानी  नितमित  सेवन  करना  चाहिए। 

गर्भावस्ता  की  उलटी  में-- भोजन  के  बाद  गर्भवती  को  उलटी  होने  की  प्रवृत्ति  कभी  कभी  ५-६  माह  तक  भी  भारी  रहती  है।  ऐसी  स्थिति  में  नारियल  का  पानी  पीकर  सौंफचूर्ण  को  पीसीहुई  मिसरी  के  साथ  १  चम्मच  मात्र  में  मुँह   में  डालकर  चूसना  चाहिए।  

गर्मी  से  बचाव  में-- गर्मी  के  समय    नारियल  का  पानी  पर्याप्त  मात्रा  में  पिने  से  लू  नहीं  लगती  तथा  मानसिक  शांति  मिलती  है।  शरीर  की  अनावश्यक  गर्मी  बाहर  निकालने  में  मदद  मिलती  है। 

खाज- खुजली  में-- नारियल  का  तेल  थोड़ा  सा  कपूर  मिलाकर  त्वचापर  लगाने  से  खाज-खुजली  दूर  होती  है।  नारियल  गिरी  नित्य  सेवन  करने  से  भी  लाभ  होता  है।  

पित्तज  व्याधियों (एसिडिटी ) में-- पित्त  दोषों,  अम्लपित्त,  रक्त  विकार,  प्यास,  उलटी,  दस्त  इत्यादि  में  नित्य  कच्चा  नारियल  मिसरी  के  साथ  सेवन  करने  से  लाभ  मिलता  है। 

संधिवात  में-- संधिवात  के  रोगी  को  नित्य  ५०  ग्राम  नारियल  गिरी  १०  ग्राम  गुड  के  साथ  खूब  चबाकर  सेवन  करना  चाहिए। 

चूहे  के  काटने  पर-- चूहे  के  काटने  पर  विषैले  प्रभाव  को  दूर  करने  के  लिए  बेस्वाद  हुए  नारियल  गिरी  को  मूली  के  रस   में  घिसकर  लेप  करने  से  विषैली  कुप्रभाव  दूर  होता  है। 

प्रमेह  रोगों  में--  जल  प्रमेह,  शुक्रमेह  इत्यादि  प्रमेह  रोगों  में  स्त्री-पुरुष  दोनों  के  लिए  नारियल  पाक  लाभप्रद  होता  है।  नारियल  पाक  २०  प्रकार के  प्रमेह  रोगों  में  लाभकारी  है,  जो  पौष्टिक  एवं  रोग  निवारक  भी  है।  
              आधा  किलो  नारियल  गिरी  को  कस   लें।  ४  कील  गोदुग्ध  में  डालकर  औटाएं।  जब  मावा  बन  जाए  उसमें  ३००  ग्राम  गाय   का  घी  डालकर  धीमी  आग  पर  भून  लें,  उसमें  १५०  ग्राम  बादाम  मींगी  पीसकर  मिला  दें।  सवा   किलो  मिसरी  की  चाशनी  बना  कर  उसमें  नारियल  एवं  बादाम  मिश्रित  मावा  मिलाकर  बरफी  की  तरह  थालों  में  जमा  दें।  ५०  ग्राम  पिस्ता  उपर  से  बुरक  दें।  यह  नारियल  पाक  १०  ग्राम  नियमित  सेवन  करें।  

रक्तार्श  एवं   बादी  बवासीर  में-- नारियल  की  जटा  को  जलाकर  भस्म  बनाकर  छानकर  रखें।  यह  ५  ग्राम भस्म  गाय   के  दूध  से  बने  ताजे  दही  २००  ग्राम  या  जल  में  मिलाकर  ५  दिनों  तक  दिन  में  ३  बार  सेवन  करने  से  लाभ  मिलता  है।  ५  दिनों  तक  केवल  दही की  लस्सी  के  अतिरिक्त  दूसरा  कोई  आहार  न  लें।  अधिकांश  रोगियों  को  इस  नुस्खे  से  दोनों  प्रकार  के  बवासीर  में  लाभ  मिल  जाता  है।  पचने  में  गरिष्ठ  खाद्य  उड़द,  अरबी,  नमकीन,  मैदा,  बेसन,  कढ़ी,  पूड़ी,  पकौड़ी  तथा  आचार,  मिर्च-मसालों  से  परहेज  रखें।  ताजे  मठा   का  सेवन  नित्य  करें। 
                 रेशे  की  पूर्ति  के  लिए  सलाद, फल एवं  हरी  सब्जियों  का  नियमित  सेवन  कीजिये।  कब्ज  न  रहे  इस  बात  का  जीवन  भर  ध्यान  रखिये।  चोकर  सहित  आटे   की  रोटी  का  सेवन  करें। 

बालों  के  रोगों  में-- नारियल  तेल  बालों  में  लगाने  से  बाल  स्वस्थ,  काले,  घने  और  मजबूत  बनते  हैं। 

संग्रहणी  में-- संग्रहणी  के  कष्ट  को  दूर  करने  के  लिए  यह  एक  आसान  नुस्खा  है।  नारियल गिरी,  बेल  गिरी  और  सोंठ  तीनों  ५०-५०  ग्राम  लेकर  महीन  चूर्ण  बनाकर  १५०  ग्राम  गुड  की  चाशनी  बनाकर  उसमें  तीनों  का  चूर्ण  मिलाकर  छोटे-छोटे  लगभग  १०-१०  ग्राम  के  लड्डू  बना  लें।  यह  लड्डू  सुबह  शाम  एक  गिलास  छाछ  के  साथ  नियमित  सेवन  करने  से  भयंकर  संग्रहणी  डॉ  होती  है।  

स्वास  सम्बन्धी  विकारों  में-- नारियल  की  जटा  की  भस्म  आधा  ग्राम  लेकर  शहद  के  साथ  सेवन  कराने  से  शीघ्र  लाभ  मिलता  है। 

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | अौषधीय गुण | पपीता


पपीता का पौधा  प्रायतः  सबकी  घर में  देखने  को  मिलता  है।  पपीता  की उपज  साल में दो बार  होती है।  विटामिन ए , बी , सी , डी  से  युक्त  एक अच्छा  एंटीऑक्सीडेंट  होने के कारण  यह   अनेक  रोगों  से  बचाता  है।  पपीता  त्वचा  तथा बालों के लिए भी  बड़ा उपयोगी  होता है।  पेप्सिन नामक एंजाइम  भोजन के पचाने  के  कार्य  में  प्रभावी  होता है।  अपच , प्लेग , कब्ज , यकृत  अादि  रोगों में  अधिक  लाभकारी  होता  है।  पपीता  के पत्तों  का  रस  कैंसररोधी  होता है।  डेंगू  इत्यादि रोगों में  प्लेटलेट्स  घटने  पर  पपीता के पत्तों का रस  देने से  शीघ्र  प्लेटलेट्स  चमत्कारी  ढंग से  बढ़ने  लगते हैं। 


                                         अौषधीय  गुण         

विषनिवारक , दरद  विनाशक  गुण  है।  कब्ज , उलटी , दस्त , अरुचि ,पित्ती , गाँठ ,प्लेग , हैजा , कफयुक्त  खांसी , कृमि रोग , दाद , बवासीर , सूजन , वात  एवं कफ  सम्बंधित  रोगों में  लाभप्रद  होता  है।  कच्चे  पपीता  का रस  आंत्र  कृमियां  को  नष्ट  करता  है।  गर्भवती  स्त्री  को  पपीता  का सेवन  करना  हानिकारक  माना  गया  है। 


                                          घरेलु  चिकित्सा 

कब्ज में --पपीता  एक उत्तम  कब्ज  निवारक  फल है।  प्रातः  २५० ग्राम  पका  पपीता  तथा भोजन  के बाद  १५० ग्राम  पपीता  का  नित्य  सेवन  करना  चाहिए।

भूख की  कमी  एवं  अपच में पके  हुए  पपीता  को  छीलकर  काट लें  तथा  नीबू  का रस   निचोड़कर  चुटकीभर  सेंधा -नमक  एवं  भुने हुए जीरे  को पीसकर  थोडा सा  जीरा  पाउडर  डालकर  पपीते का सेवन  करेंगे  तो  पाचन ठीक  तरह  से  होगा  तथा  जठराग्नि  भी तेज  होगी।  भूख खुलकर  लगेगी , पाचनशक्ति  भी बढ़ेगी।

ऑव में --पपीते  कब्ज  को दूर कर ऑव  को नष्ट करता  है।  ऑव  के मरीज  को सदैव ही  टेल हुए  खाद्य  पदार्थ  तथा  मिर्च -मसाले  से परहेज  रखना  चाहिए  तथा  नियमित  पपीते  का सेवन  करना चाहिए।  भोजन  के तुरंत  बाद  छाछ  पीना  चाहिए।  छाछ  में भुना  हुआ  जीरा  एवं  सेंधा  नमक  या  काला  नमक  भी  स्वाद  के अनुसार  मिला  लें।

दन्त  ब्याधियों  में --दांत एवं मसूड़ों  की  तख़लीफ़ों  से बचने  के लिए  पपीता  का  सेवन  करना  चाहिए।  इससे  दांतों का  दर्द  एवं  मसूड़ों से खून  आना  तथा  सूजन  इत्यादि  से  छुटकारा  मिलता है।

नेत्रों के लिए ---नित्य  पपीता  का  सेवन  करने से  नेत्र -तयोति  अच्छी  बानी  रहती है।

प्लेग होने पर --प्लेग का  आक्रमण  होने पर  पपीता का  सेवन  करने से  २४ घंटे  के अंदर  सन्धिओं का  दर्द  दूर  होता  है  तथा  इसमें  प्लेग  की गांठ को  नरम  कर  देने  की  अद्भुत क्षमता  है।
 
पपीता  के १२५  मीली  ग्राम  बीज को  पानी में  पीसकर  हर  दो -दो  घंटे  में  पिलाने  से  वमन  विरेचन  द्धारा   शरीर  का सारा  विष  नष्ट  हो  जाता है। रोगी को लाभ होता है।

हैजा  में --पपीता  के बीज  २५०  मिली ग्राम  मात्रा  में  गुलाबजल  के  साथ  घिसकर  पिलाने से  लाभ  होता है।  दिन में ३  बार दें।

अतिसार  में --अधि  रत्ति  मात्रा  में  पपीता  के  बीज पानी के साथ घिसकर  पिलाने से अतिसार  में  लाभ  होता  है।

विषैली  जंतुओं के  दंश  पर ---विषनाशक  प्रभाव  होने पर  पपीता के  बीज  को  घिसकर  दंशस्तल  पर  लेप करने  से  लाभ  होता  है।


गाँठ  पर --शरीर पर किसी भी प्रकार की गाँठ  पर  पपीता  के बीजों को घिसकर  नित्य  लेप  करने  से लाभ  मिलता है।  कच्चे  पपीता  का रस   २० ग्राम  नित्य  सेवन  भी करते  रहने  से  गाँठ  समाप्त  हो जाती है।

उदर  शूल  में ---आँतों  में  दर्द होने पर  आधी  रत्ती  पपीता  के बीज  घिसकर  पानी  के  साथ  पिलाने  से  दर्द  दूर  हो जाता  है।

सुन्नता  एवं  चर्म  विकारों  में --खुजली या  शरीर  के किसी अंग  में  सुन्नता  होने पर  तिल के तेल  में  पपीता के बीज  पीसकर , पकाकर  छन लें  तथा  यह सिद्ध  तेल  रखें।  इस तेल से  प्रभावित  अंगों की मालिस  करने से लाभ होता है।  कच्चे  पपीता  का दूध लगाने से  दाद  आदि  चार्म रोग  मिटते  है।

अस्थि  क्षय  पर ---अस्थिओं के क्षरण  होने पर  सन्धिओं के दर्द , अस्थि विकृति आदि व्याधिओं  का जन्म लेती है। पपीता का नियमित सेवन अस्थिओं  को मजभूत  बनाता  है।  इसका नित्य सेवन करने से  विकृति दूर होती है।

सर्दी , जुखाम में --जिन्हे  बार बार  सर्दी - जुखाम , एलर्जी  जैसे रोग सताती है , उन्हें नित्यप्रति  पपीते का सेवन कराना चाहिए।  इससे इम्युनिटी  बढ़ती  है , रोग नष्ट  होते हैं।

अम्ल  पित्त  में --पपीता का फल सेवन करने से  अम्ल -पित्त  दूर होता है।  जठराग्नि  प्रदीप्त  करता है।  खट्टी  डकार  आनि  बंद  होती है। यकृत एवं तिल्ली  की  बृद्धि  भी  मिटती  है।

पेट के कृमि रोग में ---पपीता  के बीजों को एक रत्ती  की मात्रा  में ले कर पीस लें , एक कप  गरम  पानी में  घोल कर  खली पेट ८-१०  दिनों तक  सेवन करने से  आंत्र  कृमि  नष्ट हो जाते हैं।  कच्चे  पपीते  का रस  भी  ५० ग्राम  नित्य खली पेट सेवन करने से  कृमि  नष्ट हो जाते  हैं।

यकृत की कमजोरी में --पपीता को लिवर टॉनिक  कहा गया है।  पीलिया  इत्यादि  यकृत (लिवर ) के  विकारों में  पके हुए  पपीता का  नियमित  सेवन  करना  चाहिए।  पपीता  यकृत  विकारों को  नष्ट  कर  याकुत  की  कार्य  - प्रणाली को  ठीक  करता है।

बौनापन  में --बच्चों की  लम्बाई  बढ़ने  के लिए पपीता  का नियमित  सेवन  करना चाहिए।  इससे  पोषक  तत्व  की  पूर्ति  होती है।

ह्रदय रोग में --पेड़ में  लगे कच्चे पपीते को  चाकू से चीरे  लगाने पर  पपीते का दूध  निकलता  है।  कच्चे  पपीते का दूध  १०-१२ बून्द  बतासे पर  टपकाकर  प्रातः  सेवन करने से ह्रदय के लिए लाभप्रद  होता है।  कच्चे पपीते की खीर  बनाकर  सेवन करना चाहिए। पपीते  के ५० ग्राम  हरे पत्तों को  पानी में  उबाल कर  बनाए काढ़े में  सौंफ , इलायची , काली मिर्च  तथा काले नमक को  पीस कर बनाया  पाउडर  ३ ग्राम  मिलकर  रात को  सोते  समय  सेवन करना चाहिए। उपरोक्त  उपचार ह्रदय  रोगों में लाभप्रद  है।

कष्टार्त्तव  में --जिन महिलाओं को अनियमित या  कष्टप्रद  मासिक  धर्म  होता है उन्हें  कच्चे पपीते  का रस   १०० ग्राम  नियमित  सेवन  करना चाहिए।

कैंसर में --कच्चे पपीते को  सलाद  के रूप में  सेवन करना  तथा कच्चे पपीते  को  कसकर  दही के साथ  रायता  सेवन करना चाहिए।

मूत्रविकारो में --पेशाब में  जलन  , दर्द , संक्रमण , बहुमूत्र  इत्यादि  में  पके पपीता का  सेवन लाभकारी  होता है।

चेहरे के सौंदर्य  के लिए --कच्चे पपीते को  काटकर उसका  रस  चेहरेकी  त्वचा पर  रगड़ने  से चेहरे के दाग ,  कालिमा  , धब्बे , किल-मुहांसो पर रस  लगाने से लाभ होता है।  पके पपीते को मसलकर  पेस्ट  बनाकर  चेहरे पर  आधा घंटे  तक  लगाकर  रखें  तत्पश्चात  स्वच्छ  पानी से चेहरा  धो  लें तथा  सूती  कपडे  से  पोछ  कर चेहरे पर  नारियल  या  तिल का तेल लगाएं। यह प्रयोग  नियमित  करने पर लाभ होता है।

डेंगू ज्वर  में ---डेंगू ज्वर में  रक्त  के प्लेटलेट्स  घाट जाते हैं।  २० ग्राम  गिलोय  के रस  के साथ  पपीते के ताजे पत्तों  का  २० ग्राम रस  निकालकर  दिन में  दो बार ३-४  दिनों  तक देने से प्लेटलेट्स  तेजीसे  बढ़ने लगते हैं। गेहूं के  जवारे का रस  , गिलोय  का रस  तथा  गुड़हल  के पत्तों का रस  एवं  एलोवेरा  का रस  भी  प्लेटलेट्स  बढाने  के लिए  उपयोगी  एवं  सहायक  होता है।

पित्त की पथरी  में --यह पित्ताशय  की पथरी के लिए प्रभावी प्रयोग है।  पपीते के  ताज़ी  जडी  खोद कर  लाएँ  तथा  गमले में  गड दें  ताकि  नित्य  प्रयोग के लिए  ताज़ी बानी रहे।  अव   प्रतिदिन  ५ ग्राम पपीता  की जड़  धोकर  साफ़  कर ले , तत्पश्चात  पानी के साथ  पीसकर  छान  लें  तथा  एक कप पानी  के साथ  निराहार  प्रातः सेवन कराएं।  यह प्रयोग  २१ दिन तक करें फिर  जांच  करा लें।  

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधीय गुण | घरेलु चिकित्सा | जामुन


जामुन दो प्रकार  होते हैं।  एक बड़ी जामुन , दूसरी  छोटी।  जामुन को  रायजामुन , थोरजामुन , जॉम्बी , कालाजाम आदि  नामों  से  विभिन्न  प्रांतों  में  जाना  जाता  है।  अंग्रेजी  में  इसे  जाम्बूल  कहा जाता है।  जामुन के  बीजों में  जम्बोलिन  नामक  ग्लूकोसाइड  पाया  जाता  है,  जो  स्टार्च  को  शर्करा  में  बदलने  से  रोकता  है ,  इसीलिए  यह  डायबिटीज  के  रोगी  के  लिए  हितकारी  है।  जामुन  के  पत्ते, फल  एवं  छाल  औषधीय  प्रयोजन  में  उपयोग  में  लए  जाते  हैं।  जामुन  के  पत्ते  आम  के  पत्ते  के  सामान  होते  हैं,  परन्तु  चिकने  और  चमकदार  होते  हैं।


                                          गुण  धर्म

यकृत,  प्लीहा,  की  वृद्धि  मिटाता  है।  भूख  बढ़ाता,  कफ  एवं  पित्त  का  शमन  करता  है।   त्वचा-विकारों  का  निवारण  करता  है।  दाहनाशक, पाचक  एवं  शीतल  प्रभाव  वाला  तृषानाशक  है।  मलावरोधक  होने  से  दस्त  में लाभप्रद  तथा  श्वास, खाँसी, पेट  रोग  तथा  कृमिनाशक  है।  रक्तशर्करा  एवं  मूत्रशर्करा  को  कम  करता  है।  खाली  पेट  सेवन  करने  से  वायुविकार  बढ़ाता  है।  अतः  दोपहर  के  भोजन  के  बाद  सेवन  करना  चाहिए।

                                        घरेलु  चिकित्सा 

पथरी  में -- जामुन  के  पके  फल  उपलब्ध  हों  तब  नित्य  सेवन  करें  तथा  अन्य  मौसमों  में  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ५ ग्राम,  १५० ग्राम  दही  में  मिलाकर  दो  बार  सेवन  करें।

शीघ्र  पतन  में --  जामुन  की  गुठली  का  ५ ग्राम  चूर्ण  नित्य  प्रातः  एवं  शाम  को  पानी  के  साथ  सेवन  करें।  इससे  मूत्रसंस्थान  के  सभी  रोगों  में  भी  लाभ  होता  है।

रक्तातिसार  में -- खुनी  दस्त  में  १० ग्राम  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ठंडे   पानी  के  साथ  सेवन  करें।

उदार  विकार  में -- जामुन  मल   बाँधने  का  काम  करता  है।  पतले  दस्त,  भूख  की  कमी  इत्यादि  उदर  विकारों  में  सेंधा  नमक  मिलाकर  जामुन  के  रस  का  सेवन  करना  चाहिए।

यकृत  एवं  तिल्ली  बढ़ने  पर -- जामुन  के  फलों  का  सेवन  या  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  या  पत्तों  का  क्वाथ  बनाकर  सेवन  करना  चाहिए।


नींद  में  पेशाब  करना -- छोटे  बच्चे  जो  बिस्तर  में  पेशाब  कर  देते  हैं,  उनके  लिए  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  ३-४ ग्राम  लेकर  पानी  के  साथ  नित्य  सेवन  कराना  चाहिए।  कुछ  ही  दिनों  में  यह  रोग  मिट  जाता  है।

पीलिआ  में -- जामुन  लिवर  टॉनिक  है।  इसमें  हीमोग्लोबिन  बढ़ाने  वाला  लौह  तत्व  है।  यकृत  को  स्वस्थ  बनाकर  पीलिआ  रोग  को  दूर  करता  है।

उलटी  में -- जामुन  की  छाल  निकालकर,  जलाकर  भस्म  बनाकर  छानकर  रख  लें।  उलटी  बंद  करने  के  लिए  शहद  में  १ ग्राम  भस्म  मिलाकर  चटा  दें।  जामुन  की  गुठली  का  चूर्ण  शहद  के  साथ  सेवन  कराने  से  भी  उलटी  बंद  होती  है।

पेट  में  बाल  या  लोहा  जाने  पर -- पेट  में  भूल  से  बाल  या  लोहे  की  पिन,  कील  इत्यादि  जाने  पर  नियमित  जामुन  का  सेवन  करते  रहने  से  नष्ट  हो  जाते  हैं।


मुँहासा  होने  पर ---मुँहासा  का  प्रमुख  कारण   चिकनाईयुक्त  गरिष्ठ  खाद्यों  का अधिक    सेवन  एवं  कब्ज   होना   है। उन  कारणों  को  दूर  करने के  उपायों के  साथ  जामुन की  गुठली  को पानी  के साथ  घिसकर  मुहांसों   पर  लेप   करने  से  भी  लाभ होता है।

खुनी बवासीर  में ---जामुन के  कोमल  पत्तों  का  २० मि .ली  रस  निकालकर  उसमें  चीनी  या  मिस्री  मिलाकर  सुबह -शाम  नियमित  सेवन  कराने  से लाभ  होता  है।

मसूड़ों की  सूजन में ---जामुन की छाल  निकालकर  काढ़ा  बना लें  तथा नित्य  तीन बार जामुन  के  काढ़े  का कुल्ला  करने से सूजन  ठीक होता  है।

दन्त रोगों में --दन्त रोगों  के  निवारण  एवं  बचाव  के लिए  जामुन  के पत्ते  छाया में  सुखा लें  तत्पश्चात  पीसकर  चूर्ण बनाकर  कपड़छन  करके  अल्प  मात्रा  में  कपूर , सेंधा  नमक , फिटकरी  तथा  शुद्ध  हल्दिचूर्ण  मिलाकर  सुबह  एबं  शाम को  मंजन  करने से  सभी प्रकार  के  दन्त - विकारों  का शमन  होता है।  जामुन  की  टहनी  की  दातुन  नित्य  करने से  भी  दन्त रोग  मिटते है।

फोड़ा  होने  पर --जामुन के पत्तों  को  पीसकर  फोड़ा पर  लेप  करने  से  फोड़ा  जल्दी  पककर  फुट  जाता है  और  फोड़ा  ठीक  हो जाता  है।

कान बहने पर --कान के  रोगों  में  जामुन की  गुठली का  चूर्ण   तिल  या  सरसों  के  तेल में  पकाकर  छन कर  रखें।  जब  कान  के  रोग  सताएं  तब २ बून्द  तेल  कान में  टपकाकर  कान में रुई  लगा  लें।

योनि  सम्बन्धी  रोगों में --१०० ग्राम  जामुन के  कोमल  पत्तों को  पीसकर  ४००  मी.ली  पानी  में  उबालकर  काढ़ा  बनालें।  इस क्वाथ  में  ५ ग्राम  फिटकरी  घोलकर  ठंडा  कर लें।  इस काढ़े से  योनि  मार्ग का  प्रक्ष्यालन  करने  से योनि सम्बन्धी  अनेक  रोगों का  निवारण  होता है।

प्रमेह एवं धातु दोष में --पके हुए  जामुन के फलों का  कल्प  भी  इन रोगों में  लाभकारी  होता है।  जामुन  फल  दिन  में ४ बार सेवन  करें।  प्रतिदिन  थोड़ी - थोड़ी  मात्रा  बढ़ाते  जाएं  २० दिन  बाद  थोड़ी -थोड़ी  मात्रा  घटाते  जाएं।  पाचनशक्ति  के अनुसार  मात्रा  विवेकपूर्वक  निर्धारित  कर लें।

मदुमेह में  --मदुमेह  के रोगी को  चिकित्सक के प्रत्यक्ष  परामर्श  से ही  उपचार क्रम  सुनिश्चित  करना  चाहिए।  मधुमेह  में  पथ्य  एवं  परहेज  पर अधिक  ध्यान  देना  अनिर्वार्य  होता है।  गेहूं  की रोटी  खाना हो तो  चोकर  सहित  ४० ग्राम  आते की रोटी खाएं।  हरी  सब्जी  एवं  सलाड  आदि  की मात्रा  भोजन में बढ़ा  देना चाहिए।  चना , जौ , सोयाबीन  तथा  तोडा तिल मिलाकर बनाए  गए  आटे  की रोटो, अंकुरित  मूंग का सेवन , मूंग की दाल , अंकुरित  मेथी  दाना , तोरई , लौकी , भिन्डी ,मूली ,टमाटर ,फूल गोभी , पत्ता  गोभी , गाजर , परवल  ,करेला ,पालक ,सेम ,खीरा ,दही ,मठा  का  सेवन करें। गेहूं , चावल ,आलू ,शकरकंद ,अरबी , गन्ने का  रस  , गुड  डालकर  तथा मिठाईओं  का त्याग  करें।  दिन में  नहीं  सोना  चाहिए।  मल  - मूत्र  के वेग  को  नहीं  रोकना  चाहिए।  एक ही  स्थान पर देर तक  बैठे  नहीं रहना  चाहिए।  शारीरिक  शक्ति के  अनुसार  सुबह-शाम  १-२ घंटे  टहलना , परिश्रम  करना  लाभप्रद  होता  है।  उपरोक्त  नियमों का  पालन  करते  हुए  निम्नानुसार  अौषधि  बनाकर सेवन करें।

     जामुन की गुठली  का चूर्ण तथा  सोंठ  सामान  मात्रा में  ले कर  दोगुना  मात्रा  में  गुड़मार  चूर्ण  लेकर  घृतकुमारी  के रस  में खरल  करके  बेर की  गुठली के  बराबर  गोलियां  बनाकर दिन में तीन बार  पानी के  साथ नित्य  सेवन  करने से दो माह में लाभ मिल जाता है।  उचित  पथ्य - परहेज  का पालन  करने पर ही  लाभ होता है।

जामुन का  बहु उपयोगी  शरबत --जामुन के पके हुए  मीठे फल  को एक लीटर  रस  ले कर  उसमे  ढाई किलो  शक्कर  मिलाकर  पकाना चाहिए।  दस मि. ली.  शरबत  जल के  साथ सेवन करने से  पित्तज  अतिसार , रक्तस्रावी  दस्त , खुनी दस्त  व  उलटी , सुजाक , प्रमेह , रक्तप्रदर , रक्तस्राबी  बवासीर , उलटी  आदि में  लाभप्रद  होता है। 

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधिय गुण | घरेलु चिकित्सा | अखरोट


        अखरोट  पतझड़  करने वाले  बहुत सुन्दर  और  सुगन्धित  बृक्ष  है , इसकी दो  जातियां  पाई  जाती है।  जंगली अखरोट   की पौधे १००  से  २००  फीट  तक  ऊँचे,  अपने  आप  उगने  वाले  तथा  फल  का  छिलका  मोटा  होता है।  कृषिजन्य  ४०  से  ९०  फीट  तक  ऊँचा  होता  है  और  इसके  फलों का  छिलका  पतला  होता  है।  इसे  कागजी  अखरोट  कहते  हैं।  इसके  बन्दूकों  के  कुन्दे  बनाये  जाते  हैं।

बाह्यस्वरूप :
               अखरोट की नई शाखाओं का पृष्ठ मखमली , कांड्त्वक धूसर तथा उसमें अनुलम्ब दिशा में दरारें होती हैं। पत्तियां पक्षवत सघन ,मूल रोमश , पत्रक संख्या में ५ से १३ , ३ से ८ इंच लम्बे ,२ से ४  इंच  चौड़े  अंडाकार ,  आयताकार  और  सरल  धार वाले  पुष्प  एकलिंगी  हरिताभ , फल  गोलाकार  हरित वर्णी  के जगह  दो पीले बिन्दुओं  से युक्त  फल  त्वचा  चर्मित  एबं  सुगन्धित  गुठली  १  से डेढ़ इंच लम्बी द्विकोस्थिय रुपरेखा में मस्तिष्क जैसी पृष्ठ ताल पर दो खण्डों में विभक्त तथा गिरी में काफी तेल पाया जाता है। वसंत में पुष्प तथा शरद ऋतु में फल आते हैं।

रासायनिक  पदार्थों की  अवस्थिति :

  अखरोट में ४० से  ४५  प्रतिशत  तक  एक स्थिर  तेल  पाया  जाता है।  इसके  अतिरिक्त  इसमें  जुग्लैडिक  एसिड  तथा  रेजिन  आदि  भी  पाए  जाते  हैं।  इसके  फलों में  एक्जोलिक  एसिड  पाया जाता है।


गुण  और धर्म 

     यह वात  नाशक , कफ  पित्त  वर्धक , दीपन , स्नेहन , अनुलोमन , कफ निःसारक , बल्य , बृषय  एबं  बृंहण  होता  है।  इसका  लेप  वर्ण्य , कुष्ठन , शोथहर  एबं  वेदना  स्थापन  होता है।  गिरी  और  इससे  प्राप्त  तेल  को छोड़कर  अखरोट  के  सब  अंग  संग्राही  होते हैं।


अखरोट की अौषधीय  गुण :
 
मस्तिष्क  दुर्वलता :
     
   अखरोट की  गिरी  को  २५ से ५० ग्राम तक की  मात्रा में नित्य खाने से मस्तिष्क  शीघ्र  ही  सबल हो जाता है।
अर्दित में 

  अर्दित में अखरोट  के तेल की मालिस  कर  वात  हर  औशधिओं  के  क्वाथ से  बफारा  देनेसे  लभ होता है।


अपस्मार 

अखरोट गिरी को  निर्गुण्डी के रस में पीस अंजन  और  नस्य  देने से लाभ होता है।

नेत्र ज्योति 

  दो अखरोट और  तीन  हरड़  की गुठली को  जलाकर  उनकी भष्म  के साथ  ४  नग  काली मिर्च को पीस कर अंजन  करने से  नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।


कंठमाला 

इसके पत्तों का क्वाथ ४० से ६०  ग्राम पीने से व  उसी  क्वाथ  से  गांठों  को  धोने  से  कंठमाला मिटती  है।


दाँत 

इसकी  छाल  को  मुँह  में  रखकर  चबाने  से दांत  स्वच्छ  होते  हैं।  अखरोट   छिलकों  की  भस्म  से  मंजन  करने से  दांत  मजबूत  होते  है।


स्तन्यजनन 

स्तन  में  दूध  की  वृद्धि  के  लिए  गेहूँ  की  सूजी  १  ग्राम  अखरोट  के  पत्ते  १०  ग्राम  पीसकर  दोनों  को  मिलाकर  गाय   के घी  में  पूरी  बनाकर  सात  दिन  तक  खाने  से  स्तन्य  (स्त्री  दुग्ध  )  की  वृद्धि  होती  है।


कास 

अखरोट गिरी  को  भूनकर  चबाने  से  लाभ  होता  है।  छिलके  सहित  अखरोट  की  भस्म  कर  एक ग्राम  भस्म  को  ५  ग्राम  मधु  के  साथ  चटाने  से  लाभ  होता  है।


हैजा   

हैजे  में  जब  शरीर  में  बाइटे  चलने  लगते  है  या  सर्दी  में  शरीर  ऐंठता  हो  तो  अखरोट  के  तेल  की  मालिश  करनी  चाहिए।


विरेचन  


अखरोट  के  तेल  को  २०  से  ४०  ग्राम  की  मात्र  में  २५०  ग्राम  दूध  के  साथ प्रातः  काल  देने  से  कोष्ठ  मुलायम  होकर  साधारणतः  अच्छा दस्त  हो  जाता है।


आंत्र कृमि 

अखरोट  की  छाल का  क्वाथ  ६०  से  ८०  ग्राम  पिलाने  से  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।  इसके  पत्तों  का  क्वाथ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्र  में  पिलाने  से  भी  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।


अर्श 

वात जन्य  अर्श  में  इसके  तेल  का  पिचु   को  गुदा  में  लगाने  से  सूजन  काम  होकर  पीड़ा  मिट  जाती  है।  इसके  छिलके  की  भस्म  २  से  ३  ग्राम  को  किसी  विष्टम्भी  औषधि  के  साथ  सुबह  दोपहर  शाम  खिलाने  से  रक्त  अर्शजन्य  रुधिर  बंद  हो  जाता  है।


आर्तव  जनन 

मासिक  धर्म  की  रुकावट  में  फल  के  छिलके  का  कव्ठ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्रा  में  लेकर  २  चम्मच  शहद       ३ -४  बार  पिलाने  से  लाभ  होता  है।  फल  के  १०  से  २०  ग्राम  छिलकों  को  १  किलो  पानी  में  पकाकर  अष्टमांश  शेष  काढ़ा  सुबह  शाम  पिलाने  से  भी  दस्त  साफ  हो  जाता  है।


प्रमेह 

अखरोट  गिरी  ५०  ग्राम ,  छुआरे  ४०  ग्राम  और  विनौले  की  मींगी  १०  ग्राम  एक  साथ  कूटकर  थोड़े  से  घी  में  भूनकर  बराबर  की  मिश्री  मिलकर  रख्खें ,  इसमें  से  २५  ग्राम  नित्य  प्रातः  सेवन  करने  से  प्रमेह  में  लाभ  होता  है।   इसके  साथ  दूध  न पियें।


वीर्यस्राव 

फलों  के  छिलके  की  भस्म  बना लें  और  इसमें  बराबर  की  मात्रा  में  खांड  मिलकर  १०  ग्राम  तक  की  मात्रा  में  जल  के  साथ  १०  दिन  प्रातः  सायं  तक  सेवन  करने  से  धातुस्राव  या वीर्यस्राव  बंद  होता है।


वात  रोग 

अखरोट  की  १०  से  २०  ग्राम  ताज़ी  गिरी  को  पीसकर  वेदना  स्थान  पर  लेप  करें ,  ईंट  को  गर्म  कर  उस  पर  जल  छिड़क  कर  कपड़ा  लपट  कर  उस  स्थान  पर  सेंक  देने  से  शीघ्र  पीड़ा  मिट  जाती  है।   गठिए  पर  इसकी  गिरी  को  नियमपूर्वक  सेवन  करने  से  रक्त  शुद्धहि  होकर  लाभ  होता  है।


शोथ

अखरोट का  १०  से  ४०  ग्राम  तेल ,  २५०  ग्राम  गौमूत्र  में  मिलकर  पिलाने  से  सर्वांग  शोथ  में  लाभ  होता  है।   वाट  जन्य  शोथ  में  इसकी  १०  से  २०  ग्राम  गिरी  को  कांजी  में  पीसकर  लेप  करने  से  लाभ  होता  है।

वृद्ध पुरुषों  के  बलवर्धनार्थ 

१०  ग्राम  गिरी  को  १०  ग्राम  मुनक्का  के  साथ  नित्य  प्रातः  खिलाना  चाहिए।


दाद 

प्रातः  काल  बिना  मंजन  कुल्ला  किये  अखरोट  की  ५  से  १०  ग्राम  गिरी  को  मुंह  में  चबाकर  लेप  करने  से  कुछ  ही  दिनों  में  दाद  मिट  जाती  है।


नासूर 

इसकी  १०  ग्राम  गिरी  को  महीन  पीसकर  मूम  या  मीठे  तेल  के  साथ  गलाकर  लेप  करें।


व्रण 

इसकी  छल  के  क्वाथ  से  व्रणों  को  धोने  से  लाभ  होता  है।


नारू 

अखरोट  की  खेल  को  जल  के  साथ  महीन  पीसकर  आग  पर  गर्म  कर  नहरुबा  की  सूजन  पर  लेप  करने  से  तथा  उस  पर  पट्टी  बांध  कर  खूब  सेंक  देने  से  नारू  १० -१५  दिन  में  गाल  के  बाह  निकलत अ है।   अखरोट  की  छल  को  पानी  में  पीसकर  गर्म  कर  नारू के  घाव  पर  लगाएं।


अहिफेन  विष 

अखरोट  की  गिरी  २०  से  ३०  ग्राम  तक  खाने  से  अफीम  का  विष  और  भीलवे  के  उपद्रव  शांत  हो  जाते  हैं।