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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

स्वस्थशरीर । आयुर्वेदिक औषधि । गिलोय


गिलोय  अनेक  रोगोंसे  रक्षा  करनेवाली  जीवन  शक्ति को  बढ़ाने  वाली  निरापद  प्राकृतिक  एंटीबायोटिक  औषधि  है। गिलोय  टी.बी , कैंसर , टाइफाइड  एवं  सभी प्रकार के ज्वारों में  उपयोगी है।

गिलोय  के  प्रचलित  नाम गुडुची , अमृता , गलो , गुडबेल , मधुपर्णी  आदि है। नीम  के पेड़ पर  चढ़ी  इसकी  लता  बेहद  लाभकारी  होता है।  इसकी लता  जिस पेड़ पर चढ़ती है , उस पेड़ की सारे  गुण  भी  अपने अंदर  समा  लेती है। यह  औषधि  कमजोरी  एवं  बृद्धावस्था  दूर  करती है। गिलोय  की लता  जो ऊँगली  जैसी  मोटी  तथा  धूसर  रंग  की  हो , वह औषधि  उपयोगी होता है।  इसकी लता  जितनी पुरानी हो उतनी ही  गुणकारी  होती है। 

गिलोय की गुण एवं  धर्म --

बलकारक , रक्तशोधक , मूत्रल , पित्तनाशक , ज्वर  एवं  त्रिदोषनाशक  है।  रक्त पित्त , वात  रक्त  तथा  पित्त  दोष  जन्य  रोगोंको  नष्ट  करने में  सक्षम  है।  पीलिया , मधुमेह , क्षयरोग , टाइफॉइड , कैंसर , भस्मक रोग , ह्रदय रोग , प्रमेह , सुजाक , कुष्ठ , चर्मरोग , हाथीपाँव , खाँसी , कृमि , अम्लता , ग्रहणी  विकार  दूर करने  वाली  अौषधि  है। मात्रा --हरी  ताजी  गिलोय का  रस  १० मी. ली.  से  २०  मी. ली. , गिलोय का  चूर्ण --४ से  ६  ग्राम  तक , गिलोय का  सत्व --१ /२  ग्राम  से ३  ग्राम। 

उपयोग --वात  सम्बन्धी रोगों में  घृत  के  साथ  पित्त  सम्बन्धी  रोगों में  मिसरी  के  साथ  तथा  कफ  सम्बन्धी  रोगों में  शहद  के साथ  प्रभावकारी  होती है।  आम वात  में  गिलोय  के क्वाथ  के साथ  सोंठ  का  चूर्ण  मिलाकर  तथा  हाथीपाँव  में  गोमूत्र  के साथ  गिलोय का  प्रयोग  किया  जाता है। 

सभी  प्रकार के ज्वर  में ---प्राकृतिक  एंटीबायोटिक  अौषधि  होने से  सभी  प्रकार  के ज्वर , बार -बार  आने वाले  जीर्ण  ज्वर , मोती  ज्वर  इत्यादि में  गिलोय  बिना  कमजोरी  के  रोग  निवारण  करती है।  गिलोय के साथ  धनिआ , नीम  की  छाल  का  आतंरिक  भाग , कमल  की नाल  और  लाल  चन्दन  लेकर  क्वाथ  बनाकर  दिन  में  २ बार  सेवन  कराना  चाहिए। 

ज्वर के  बाद  की  निर्बलता  को दूर करने  के लिए  गिलोय  और सोंठ , सारिवा  का  फांट  २० मी. ली.  की मात्रा  में दिन में  ३ बार  देना  चाहिए।  गिलोय के  ताजे  रस  में  शहद  या  मिसरी   मिलाकर  दिन में  ३ बार  देने से  काला  ज्वर में  लाभ होता है। 

पागलपन , दिमागी  असंतुलन  में --पित्त के  प्रकोप से  पागलपन  के लक्षण  हो , क्रोध से  निरर्थक  बोलना , अनिद्रा ,लाल  ऑंखें  इत्यादि  लक्षण  दिखाई  देने पर  गिलोय  के साथ  ब्राम्ही  को  मिलाकर  दिन में  ३ बार  पिलाने से २० दिन में  पूरा  लाभ   मिल  सकता है। 

प्रमेह  में --साधारण  विकार में  गिलोय  का रस  शहद के साथ  दिन में २ बार सेवन  करने  से  लाभ मिलता है। 

शीत  पित्त  में --गिलोय  के रस  में  बाकुची  चूर्ण मिलाकर  लेप  करने  से या मालिस करने से  लाभ मिलता है। 

आँखों के रोग में --पित्तज  दोषों के  कारण  आँखों  में  लाली  तथा  नेत्र  दॄष्टि  कमजोर  हो तो गिलोय का रस  १० मी. ली.  शहद  या मिसरी  के साथ  सेवन  कराना  चाहिए। 

मेद  रोग में --गिलोय और त्रिफला  का क्वाथ  बनाकर १  ग्राम  शिलाजीत  तथा  १ रत्ती  लौहभस्म  मिलाकर  प्रतिदिन  सेवन  कराने  से  लाभ मिलता है। 

मूत्रकृच्छ  और  सुजाक में --गिलोय , आंवला , गोखरू , अश्वगंधा का क्वाथ  दरद  सहित  वातज  मूत्रकृच्छ में  २० मी. ली.  दिन में  तीन  बार  सेवन  करने से  लाभ होता  है।

ताजी  गिलोय  ५० ग्राम  पीसकर  २५० मी. ली.  पानी में  छानकर  कलमी शिरा , जवाखार , शीतलचीनी  का चूर्ण  ५-५  ग्राम तथा  ५० ग्राम  चीनी मिलाकर , छानकर  ४ -४  घंटे  के अंतर से  ४  बार  पिलाने से  सुजाक  के सारे  कष्ट  दूर  होते है।

यकृत  की  कमजोरी --लीवर  की खराबी  की बजह से  पीलिया , कामला , जलोदर  इत्यादि  जितने से रोग खड़े होते हे। इन  रोगोंमे  गिलोय  बड़े उपकारी  सिद्ध  होता हे।

संधि वात  में --गिलोय का  काढ़ा  बनाकर  उसमे  ५ मी.  ली.  अरंडी  का तेल  मिलाकर  सेवन  करने से  जटिल संधि  वात  दूर  होता है। 

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधिय गुण | घरेलु चिकित्सा | अखरोट


        अखरोट  पतझड़  करने वाले  बहुत सुन्दर  और  सुगन्धित  बृक्ष  है , इसकी दो  जातियां  पाई  जाती है।  जंगली अखरोट   की पौधे १००  से  २००  फीट  तक  ऊँचे,  अपने  आप  उगने  वाले  तथा  फल  का  छिलका  मोटा  होता है।  कृषिजन्य  ४०  से  ९०  फीट  तक  ऊँचा  होता  है  और  इसके  फलों का  छिलका  पतला  होता  है।  इसे  कागजी  अखरोट  कहते  हैं।  इसके  बन्दूकों  के  कुन्दे  बनाये  जाते  हैं।

बाह्यस्वरूप :
               अखरोट की नई शाखाओं का पृष्ठ मखमली , कांड्त्वक धूसर तथा उसमें अनुलम्ब दिशा में दरारें होती हैं। पत्तियां पक्षवत सघन ,मूल रोमश , पत्रक संख्या में ५ से १३ , ३ से ८ इंच लम्बे ,२ से ४  इंच  चौड़े  अंडाकार ,  आयताकार  और  सरल  धार वाले  पुष्प  एकलिंगी  हरिताभ , फल  गोलाकार  हरित वर्णी  के जगह  दो पीले बिन्दुओं  से युक्त  फल  त्वचा  चर्मित  एबं  सुगन्धित  गुठली  १  से डेढ़ इंच लम्बी द्विकोस्थिय रुपरेखा में मस्तिष्क जैसी पृष्ठ ताल पर दो खण्डों में विभक्त तथा गिरी में काफी तेल पाया जाता है। वसंत में पुष्प तथा शरद ऋतु में फल आते हैं।

रासायनिक  पदार्थों की  अवस्थिति :

  अखरोट में ४० से  ४५  प्रतिशत  तक  एक स्थिर  तेल  पाया  जाता है।  इसके  अतिरिक्त  इसमें  जुग्लैडिक  एसिड  तथा  रेजिन  आदि  भी  पाए  जाते  हैं।  इसके  फलों में  एक्जोलिक  एसिड  पाया जाता है।


गुण  और धर्म 

     यह वात  नाशक , कफ  पित्त  वर्धक , दीपन , स्नेहन , अनुलोमन , कफ निःसारक , बल्य , बृषय  एबं  बृंहण  होता  है।  इसका  लेप  वर्ण्य , कुष्ठन , शोथहर  एबं  वेदना  स्थापन  होता है।  गिरी  और  इससे  प्राप्त  तेल  को छोड़कर  अखरोट  के  सब  अंग  संग्राही  होते हैं।


अखरोट की अौषधीय  गुण :
 
मस्तिष्क  दुर्वलता :
     
   अखरोट की  गिरी  को  २५ से ५० ग्राम तक की  मात्रा में नित्य खाने से मस्तिष्क  शीघ्र  ही  सबल हो जाता है।
अर्दित में 

  अर्दित में अखरोट  के तेल की मालिस  कर  वात  हर  औशधिओं  के  क्वाथ से  बफारा  देनेसे  लभ होता है।


अपस्मार 

अखरोट गिरी को  निर्गुण्डी के रस में पीस अंजन  और  नस्य  देने से लाभ होता है।

नेत्र ज्योति 

  दो अखरोट और  तीन  हरड़  की गुठली को  जलाकर  उनकी भष्म  के साथ  ४  नग  काली मिर्च को पीस कर अंजन  करने से  नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।


कंठमाला 

इसके पत्तों का क्वाथ ४० से ६०  ग्राम पीने से व  उसी  क्वाथ  से  गांठों  को  धोने  से  कंठमाला मिटती  है।


दाँत 

इसकी  छाल  को  मुँह  में  रखकर  चबाने  से दांत  स्वच्छ  होते  हैं।  अखरोट   छिलकों  की  भस्म  से  मंजन  करने से  दांत  मजबूत  होते  है।


स्तन्यजनन 

स्तन  में  दूध  की  वृद्धि  के  लिए  गेहूँ  की  सूजी  १  ग्राम  अखरोट  के  पत्ते  १०  ग्राम  पीसकर  दोनों  को  मिलाकर  गाय   के घी  में  पूरी  बनाकर  सात  दिन  तक  खाने  से  स्तन्य  (स्त्री  दुग्ध  )  की  वृद्धि  होती  है।


कास 

अखरोट गिरी  को  भूनकर  चबाने  से  लाभ  होता  है।  छिलके  सहित  अखरोट  की  भस्म  कर  एक ग्राम  भस्म  को  ५  ग्राम  मधु  के  साथ  चटाने  से  लाभ  होता  है।


हैजा   

हैजे  में  जब  शरीर  में  बाइटे  चलने  लगते  है  या  सर्दी  में  शरीर  ऐंठता  हो  तो  अखरोट  के  तेल  की  मालिश  करनी  चाहिए।


विरेचन  


अखरोट  के  तेल  को  २०  से  ४०  ग्राम  की  मात्र  में  २५०  ग्राम  दूध  के  साथ प्रातः  काल  देने  से  कोष्ठ  मुलायम  होकर  साधारणतः  अच्छा दस्त  हो  जाता है।


आंत्र कृमि 

अखरोट  की  छाल का  क्वाथ  ६०  से  ८०  ग्राम  पिलाने  से  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।  इसके  पत्तों  का  क्वाथ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्र  में  पिलाने  से  भी  आँतों  के  कीड़े  मर  जाते  हैं।


अर्श 

वात जन्य  अर्श  में  इसके  तेल  का  पिचु   को  गुदा  में  लगाने  से  सूजन  काम  होकर  पीड़ा  मिट  जाती  है।  इसके  छिलके  की  भस्म  २  से  ३  ग्राम  को  किसी  विष्टम्भी  औषधि  के  साथ  सुबह  दोपहर  शाम  खिलाने  से  रक्त  अर्शजन्य  रुधिर  बंद  हो  जाता  है।


आर्तव  जनन 

मासिक  धर्म  की  रुकावट  में  फल  के  छिलके  का  कव्ठ  ४०  से  ६०  ग्राम  की  मात्रा  में  लेकर  २  चम्मच  शहद       ३ -४  बार  पिलाने  से  लाभ  होता  है।  फल  के  १०  से  २०  ग्राम  छिलकों  को  १  किलो  पानी  में  पकाकर  अष्टमांश  शेष  काढ़ा  सुबह  शाम  पिलाने  से  भी  दस्त  साफ  हो  जाता  है।


प्रमेह 

अखरोट  गिरी  ५०  ग्राम ,  छुआरे  ४०  ग्राम  और  विनौले  की  मींगी  १०  ग्राम  एक  साथ  कूटकर  थोड़े  से  घी  में  भूनकर  बराबर  की  मिश्री  मिलकर  रख्खें ,  इसमें  से  २५  ग्राम  नित्य  प्रातः  सेवन  करने  से  प्रमेह  में  लाभ  होता  है।   इसके  साथ  दूध  न पियें।


वीर्यस्राव 

फलों  के  छिलके  की  भस्म  बना लें  और  इसमें  बराबर  की  मात्रा  में  खांड  मिलकर  १०  ग्राम  तक  की  मात्रा  में  जल  के  साथ  १०  दिन  प्रातः  सायं  तक  सेवन  करने  से  धातुस्राव  या वीर्यस्राव  बंद  होता है।


वात  रोग 

अखरोट  की  १०  से  २०  ग्राम  ताज़ी  गिरी  को  पीसकर  वेदना  स्थान  पर  लेप  करें ,  ईंट  को  गर्म  कर  उस  पर  जल  छिड़क  कर  कपड़ा  लपट  कर  उस  स्थान  पर  सेंक  देने  से  शीघ्र  पीड़ा  मिट  जाती  है।   गठिए  पर  इसकी  गिरी  को  नियमपूर्वक  सेवन  करने  से  रक्त  शुद्धहि  होकर  लाभ  होता  है।


शोथ

अखरोट का  १०  से  ४०  ग्राम  तेल ,  २५०  ग्राम  गौमूत्र  में  मिलकर  पिलाने  से  सर्वांग  शोथ  में  लाभ  होता  है।   वाट  जन्य  शोथ  में  इसकी  १०  से  २०  ग्राम  गिरी  को  कांजी  में  पीसकर  लेप  करने  से  लाभ  होता  है।

वृद्ध पुरुषों  के  बलवर्धनार्थ 

१०  ग्राम  गिरी  को  १०  ग्राम  मुनक्का  के  साथ  नित्य  प्रातः  खिलाना  चाहिए।


दाद 

प्रातः  काल  बिना  मंजन  कुल्ला  किये  अखरोट  की  ५  से  १०  ग्राम  गिरी  को  मुंह  में  चबाकर  लेप  करने  से  कुछ  ही  दिनों  में  दाद  मिट  जाती  है।


नासूर 

इसकी  १०  ग्राम  गिरी  को  महीन  पीसकर  मूम  या  मीठे  तेल  के  साथ  गलाकर  लेप  करें।


व्रण 

इसकी  छल  के  क्वाथ  से  व्रणों  को  धोने  से  लाभ  होता  है।


नारू 

अखरोट  की  खेल  को  जल  के  साथ  महीन  पीसकर  आग  पर  गर्म  कर  नहरुबा  की  सूजन  पर  लेप  करने  से  तथा  उस  पर  पट्टी  बांध  कर  खूब  सेंक  देने  से  नारू  १० -१५  दिन  में  गाल  के  बाह  निकलत अ है।   अखरोट  की  छल  को  पानी  में  पीसकर  गर्म  कर  नारू के  घाव  पर  लगाएं।


अहिफेन  विष 

अखरोट  की  गिरी  २०  से  ३०  ग्राम  तक  खाने  से  अफीम  का  विष  और  भीलवे  के  उपद्रव  शांत  हो  जाते  हैं। 

सोमवार, 30 नवंबर 2015

स्वस्थशरीर | औषधि गुण | घरेलु चिकित्सा | तुलसी


तुलसी एक निरापद  एंटीबायोटिक  औषधि  है।  इसे  सर्व रोगहरी  कहा  जाता  है।  यह  औषधि  शारीरिक  एबं  मानसिक  रोगों का  शमन  करती  है।  आयुर्वेद  की  दॄष्टि  से  भी इसे  अनेक  रोगों में  प्रभावकारी  पाया  गया  है।  तुलसी का पौधा  भी  पीपल  की तरह  सतत  ऑक्सीजन  प्रदान कर मानव मात्र  के लिए  परम कल्याणकारी  है।  विकिरण  के  दुष्प्रभाव  को दूर  करने  का गुण  तुलसी में  है।  तुलसी  दो  प्रकार  है --एक  रामा  तुलसी , जिसके  पत्ते हरे  होते  हैं  तथा  दूसरी  श्यामा , जिसके  पत्ते  काले  होते  हैं।  आयुर्वेद  ने  दोनों  के गुण  सामान   बताएं  है। 

तुलसी  को  वैष्णवी , बृंदा , तुलसा  विष्णुपत्नी , सुगंधा , पावनि  आदि  नामों  से जाना  जाता  है।  आयुर्वेद  मतानुसार  तुलसी कृमिनाशक , वातनाशक , कफ विकारों  को दूर  करनेवाली , उलटिनाशक , मूत्रावरोध  दूर करने वाली , पित्तकारक , ह्रदय के  हितकारक , ज्वरनाशक , चर्मरोगनाशक , हिस्टीरिया और  बेहोशी  दूर  करनेवाली  है। 

 सावन  के  महीने  में  तुलसी के पौधे  को  घर - घर  रोपित  स्थापित किया  जाता  है।  इसे  अभियान  के रूप  में  भी  चलाया  जा सकता  है। इसके  पौधे का  बितरण  करना पुण्यदायक  माना  गया  है।  अनेक रोगों को  दूर करने  का गुण  एबं  सरलता  से  उपलब्ध  होने  के कारण  तुलसी का  महत्व  कई  गुना  बढ़  जाता  है।


सभी  प्रकार  के वात  रोग  एबं  कफ  से सम्बंधित  बिमारिओं  में  इसका प्रभाव  बहुत  ही  कारगर  पाया  गया है। तुलसी में कैंसररोधी  प्रभाव भी है।  स्थानीय  लेप के रूप में  घाव ,फोड़े , संधियों  की सूजन , पीड़ा , मोच  अआदीमें  इसका उपयोग  प्रभावी  होता है।  मानसिक अवसाद  एबं  लो  ब्लूडप्रेसर की स्थिति  में  इसे  त्वचा पर  मलने से  तुरंत  स्नायु  संस्थान  सक्रिय  होता है।  शरीर के बाहरी  कृमिओं को  नस्ट  करने में भी इसका लेप  करते  हैं।  उदरशूल  तथा  अंतोकी  कृमिओं को  नस्ट करने  में भी उपयोगी  है।

तुलसी  सभी  प्रकार के  ज्वारों  का चक्र  तुरंत  तोड़ देती है।  क्षय रोग  नस्ट करने में भी प्रभावी  है।  जीवनी शक्ति  बढाती है तथा  हानिकारक  जीवाणुओं  को  पलने  नहीं  देती है।  जहाँ  तुलसी के पौधे होते हैं वहां की  वायु  बिषाणु  रहित  तथा  सुगन्धित  होती है।

बिभिन्न  रोगोंमें  तुलसी के प्रयोग 
खांसी में ---अड़से  के पत्तों  का रस  एबं  तुलसी के पत्तों  के रस को शेहद  के साथ  मिलकर  सेवन करने से  खांसी  में  बड़ा  लाभ  होता  है।

चार  पांच लोप  भूनकर  तुलसी के पत्ते  के साथ  सेवन  करने से  सब तरह  की खांसी में लाभ होता है।

अदरक के रास के साथ  तुलसी के पत्ते का  रस  शहद  के साथ  चटाने  से भी  लाभ  मिलता है।  काली तुलसी के पत्तों का रस काली  मिर्च  के साथ  सेवन करने से खांसी का  बेग  संत होता  है।

दांतों के दर्द में ---तुलसी के पत्ते  काली मिर्च के साथ  पीस  कर छोटी  छोटी सी गोली बनाकर  दर्द वाले  दांतों के विच  दवा कर  रखने  से  दन्त  दर्द  बंद  होता है।

पीनस  रोग  में ---तुलसी के  पत्तों  का रस  निकालकर  हल्का  गरम  करके  २-३  बून्द  कान  में  टपकाएं।  इससे  कांन के  दर्द  बंद  हो  जाता  है।
            तुलसी  के  पत्तों का  रस  दो  भाग  तथा  सरसों  का  तेल  एक  भाग  मंद  आग  पर  गरम  कर  सिद्ध  तेल बना  लें।  यह  तेल  जब  भी  कान में  दर्द  हो , १-२  बून्द डालने  से  कान  की पीड़ा दूर होता है।

दाद में ---चर्मरोग में तुलसी की बड़ी प्रभावी ओषधि   माना  गया  है।  तुलसी के  पत्तों को  पीसकर  उसमें  नींबू   का  रस  मिलाकर  कुछ  दिन तक  दाद पर  लगाने  से  दाद  समाप्त  हो जाता  है।

अन्य  चर्मरोगों  में ---तुलसी के पत्तों को  गंगा जल  में  पीसकर  नित्य  लगाने से  सफ़ेद  दाग  मिट  जाते  हैं।  तुलसी के पत्तों  का रस  दो  भाग  तथा  तिल का  तेल  एक  भाग  लेकर  मंद  आँच  में  पकाएं।  ठीक  पाक जाने  पर  छान  लें।  यह  तेल  खुजली  इत्यादि  चर्मरोगों  में भी  लाभकारी  है।  चेहरे के सौंदर्य  के लिए  तुलसी के पत्तों  को  पीसकर उबटन  लगाएं।

मलेरिया  में --एक गिलास  पानी में  २१  तुलसी के पत्ते  एबं  दो काली मिर्च  पीसकर  डालें  तथा इस पानी को  उबालें जब  आधा  पानी  शेष  रहे  तब  उतारकर  ठंडा  करें।  चाय  की तरह  यह  काढ़ा  रोगी को पिला दे , इस से  पसीना आकर  ज्वर  दूर होगा।

 सर्प  विष  में ---तुलसी विष नाशक  है।   सर्प दंश  की स्थिति  में तुलसी के पत्तों  का रस  अधिक से अधिक  मात्रा  में मिलाएं  तथा तुलसी की  जड़ को  घिसकर  शरीर में दंश स्थल  पर लेप करें।  सर्प दंश से पीड़ित  रोगी  यदि  बेहोशी  में हो  तो  उसके  कान एबं  नाक में  तुलसी के पत्तों का रस  डालना  चाहिए। इससे  बेहोशी दूर  होगी एबं  सर्प विष  का प्रभाव  दूर होगा। केले के  तने का  रस  भी  तुलसी के पत्तों  के रस के  साथ  देने से बड़ा  प्रभावकारी  होता  है। 

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

स्वस्थशरीर | स्वस्थबृत्त का विज्ञानं | पंचकर्म


स्वस्थबृत्त की जब हम चर्चा करते हैं तो दो नामों की विशेष चर्चा होती है --- पंचकर्म एवं षट्कर्म। आचार्य  

चरक  कायचिकित्सा  को षट्कर्म  सिद्धि के रूप में  मानते  हैं।  उनके  अनुसार  ये  षट्कर्म  है ---१  लंघन ; 

२ बृंहण ; ३  रक्षण ; ४  स्नेहन ; ५  स्वेदन  एबं ६  स्तंभन।   एक  है  शोधन , दूसरा  है  शमन।  शोधन  यदि 

 ठीक  से  हो तो  दोषों का  प्रकोप  नहीं होता।  पंचकर्म चिकित्सा   प्रधानतः  शशोधन  चिकित्सा  है।  दूसरी और

  घेरंड संहिता भी हठयोग के अंतर्गत शरीर शोधन हेतु षट्कर्मों की बात कहती है। ये हैं धोती, नेति, नौलि, त्राटक

 तथा कपाल भाति। छहों क्रियाएँ शरीर शोधन के लिए हैं। योगिराज घेरंड कहते हैं --''षट्कर्मों द्वारा शरीर का

 शोधन कर आसनों से शरीर को दृढ़ करना चाहिए, मुद्राओं से उन्हें स्थिर कर प्राणायाम से स्पूर्ति एवं  लघुता 

प्राप्त करें। प्रत्याहार से धीरता बढ़ती है, ध्यान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार एवं निर्विकल्प समाधि द्वारा 

निर्लिप्त साधक मुक्त हो जाता है। ''

              योग के षट्कर्म से आयुर्वेद के षट्कर्म अलग हैं। फिर जब हम पंचकर्मों की चर्चा करते हैं तो शरीर

 विज्ञान --कायचिकित्सा के मर्म के अनुरूप चरक, शारंगधर, भावप्रकाश , उल्हन  आदि ने जो  पंचकर्म  का 

बिभाजन  किया  है , वह  इस प्रकार  है --पूर्व कर्म, पश्चात कर्म, प्रधान कर्म। पूर्व कर्म में हैं -- दीपन, पाचन, 

स्नेहन एवं स्वेदन।  पश्चात कर्म  में विशेष  आहार --व्यबस्ता  है  तथा प्रधान  कर्म है ---वामन, विरेचन , 

वस्ति , शिरोविरेचन , रक्त  मोक्षण।   वस्ति में  अनुवासन  एबं आस्थापन  आते हैं। 

    पंचकर्मों  की  महत्ता  चरक सूत्र  में बताई  गई है।  चरक कहते हैं  की इनसे  कायाग्नि  तीक्ष्ण  हो जाती  है , 

 व्यधिओं  का  प्रशमन  हो जाता है , स्वस्थ्य  वापस  ठीक  होने लगता  है , इन्द्रियां  प्रसन्न  होती है , शरीर का

 वर्ण  पुनः  लोट  आता है , बुढ़ापा विलम्ब  से आता है , रोग रहित  दीर्घायु  प्राप्त होती है। 

    पांच कर्म  काया चिकित्सा का मूल आधार है।  आयुर्वेदिक  चिकित्सा  के ये  आधारभूत  कर्म हैं।  संशोधन

  करना अति  अनिवार्य  है।  बिना  उसके  सारे  चिकित्सकीय  कर्म  अधूरे  मने जाते  है। पांच कर्म संशोधन

  तथा पूरक कर्म  जुड़  जाने  से एक पूर्ण  चिकित्सा  भी है।  चरक स्थान --स्थान  पर पांच कर्मा की स्वस्थ

  वृत्त ,  रसायन , बाजीकरण , शल्य --शालाक्य , भुत  विकारों  की चिकित्सा  तथा  विष -- विकारों  की

  चिकित्सा के  परिपेक्ष्य  में महत्ता  बताते है।  शुश्रुत  भी उनका  समर्थन  करते है।  


        उपयुक्त्  ऋतु  में संशोधन  कर्म  का उपयोग  स्वस्थवृत्त  का अंग  मन गया है।  चरक  कहते हैं  की हेमंत

 रूरतु  में  संचित  दोष   को  बसंत में ; ग्रीष्म ऋतु  में  संचित  दोष  को  वर्षाकाल  में  और  वर्षाऋतु में  संचित

 दोष को  शरद  ऋतु  में उपयुक्त संशोधन  कर्मों  द्वारा  मुक्त  कर  दिए  जाने पर  मनुष्य  में  ऋतु प्रभाव  से

  उत्पन्न  होने वाले  रोग  नहीं होते।  आज  इन्ही रोगों  का  बाहुल्य  है।  ऋतु चर्चा की  किसी  को भी जानकारी

  नहीं है।  फिर  रोगी  होने के  वाद  चिकित्सकों  की  शरण में जाते हैं।  रोग  आने से पूर्व  यदि योग  एवं 

  आयुर्वेद  का  थोडा सा  भी  ज्ञान  अपने  जीवन में उतार  लें  तो  कोई भी  कभी भी  रोगी न हो। 

        सुश्रुत कहते हैं की रोगोत्पत्ति  के पूर्व ही दोषों का हरण कर लेना बुद्धिमान वैद्यो का कर्त्तव्य है। इसके

 लिए वसंत में कफ का, शरद में पित्त का तथा वर्षा में वात का शमन इसलिए करना चाहिए की ये उन दोषों के 

प्रकोपकाल हैं। अष्टांग हृदय में वागभट्ट कहतें हैं कि ग्रीष्म ऋतु अति उष्ण ,वर्षा ऋतु अत्यधिक वर्षा वाली तथा 

शीत ऋतु अत्यधिक ठंडी होती है। स्वभावतः इनमें दोषों का प्रकोप होता है।  अतः संधि कल में दोषित दोषों का

 शमन करना  अनिवार्य है।  ऋतु -- विपर्यय  की कारन आज ग्रीष्म ऋतु में ओलों की वर्षा से ठण्ड देखि जाती है। 
 ठंडक में  गर्मी ततयः वर्षा की हीनता  देखि जा रहीहै।  ऐसे  में सभी दोषो का प्रकोप चरम सीमा पर होता है। 

 उस पर हमारा आहार भिो बीकृत , ऋतु प्रतिकूल  होता है।  इसीलिए रोगो का  बाहुल्य है।  सभी का उपचार है 

 पंचकर्म -- सशोधन  एबं  सशमन  का उपचार क्रम। 

  सुश्रुत सशोधन कर्म के लिए निम्न  लिखित सिद्धांत  देते हैं  --

१ शिशिर में  कफ का  संचय तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्दिस्ट कर्म है -- दीपन , पाचन। 

२ बसंत में कफ का प्रकोप तथा वाट का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है -- वमन 

३  ग्रीष्म  में वाट का संचय एबं कफ का प्रशमन होता है।  निर्द्धिस्ट कर्म है --वात हर  अआहार -- विहार। 

 ४  वर्षा  में पित्त एबं कफ का संचय तथा वाट का प्रकोप होता  है।  निर्द्धिस्ट कर्म है वस्ति। 

५  शरत में पित्त एबं कफ का प्रकोप होता है तथा  वाट का प्रशमन।  निर्द्धिस्ट कर्म है --विरेचन। 

६  हेमंत (ठंडक की शुरुवात ) में कफ का संचय होता है, वात  का प्रकोप  तथा पित्त का प्रशमन , ऐसे में  वस्ति

  कर्म  निर्दिस्ट  है। 

१ -स्नेहन कर्म ----
   पूर्व कर्म का यह एक प्रमुख अंग है। चरक सूत्र का तेरहवाँ अध्याय इसकी विस्तृत व्याख्या करता है। स्नेहन

अनिवार्य है। बिना स्नेहन के संशोधन शरीर में उपद्रव मचा सकता है। स्नेहन हेतु जो द्रव्य प्रयुक्त होते हैं

, वे स्निग्ध , गुरु , मृदु गुण  वाले होते हैं। घी , तैल , वसा एवं मज्जा ये चार प्रमुख स्नेह वर्ग में आते हैं। इनमें से

 घृत सर्वोत्तम है। ऋतु   अनुसार  द्रब्य  अलग --अलग  है।  शरत ऋतु में  घृत , बसंत में  वसा  एबं  सम्मिश्रित

 ऋतु में  तैल  पान  बताया गया है।  अति उष्ण  तथा अति शीतकाल  में स्नेहन  का निषेध  किया गया है।